'मा। मैं संन्यास लेना चाहता हूँ।' सात वर्ष के बालक शंकर ने माता से आज्ञा माँगी। पाँचवें वर्ष में उनका यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हुआ था और केवल दो वर्ष गुरुगृह में रहकर उन्होंने चारों वेद, वेदांग एवं दर्शन शास्त्र की शिक्षा समाप्त कर दी थी।
ऐसे लोकोत्तर बालक के लिये क्या अवस्था का बन्धन हो सकता है ? माता सुभद्रा कैसे आज्ञा दें। वृद्धावस्था में भगवान शंकर की आराधना से उन आशुतोष ने वरदान स्वरूप तो यह एक सन्तान प्रदान की उन्हें बालक तीन वर्ष का था, तभी उसके पिता श्रीशिवगुरुजी संसार छोड़कर कैलास पधार गये।
यह क्या सामान्य बालक है माता की गोद में? साक्षात् शंकर ही तो पधारे हैं। एक वर्ष की अवस्था में मातृ-भाषा का शुद्ध स्पष्ट ज्ञान, दो वर्षों में माता से सुने पुराणों को कण्ठ कर लेना और अभी तो सात ही वर्ष के हुए न? माता ऐसे पुत्र को छोड़ कैसे दे, कैसे नेत्रों से पृथक् करे।
'मा! तू मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दे दे, तो मगर मुझे छोड़ देगा!' विश्व को द्योतित करने वाले सूर्य झोपड़ी में बंदी नहीं हो सकते। माता नदी में स्नान कर नही थी। शंकर का पैर मगर ने पकड़ लिया। वे डूबते हुए भी शान्त, स्थिर बने रहे। माता से उन्होंने संन्यास की आज्ञा माँगी।
'तू मेरी मृत्यु के समय आ जाना!' माता ने आज्ञा दे दी। पुत्र का जीवन बचता हो तो ऐसा ही सही। उन्होंने केवल मृत्यु के समय दर्शन चाहा। मगर तो उन योगिराज की योगमाया की क्रीड़ा पुत्तलिका था। वहाँ से नर्मदा तट पर आकर स्वामी गोविन्द भगवत्पाद से आठ वर्ष की अवस्था में संन्यास ग्रहण किया।
गुरु ने उनका नाम भगवत्पूज्यपादाचार्य रखा। वहाँ गुरु के उपदिष्ट मार्ग से ये शीघ्र योगसिद्ध हो गये। गुरुदेव ने काशी जाकर इनसे ब्रह्मसूत्र पर भाष्य करने की आज्ञा दी।
श्रीशंकराचार्य के प्रथम शिष्य काशी में सनन्दनजी हुए। इनका नाम पद्मपादाचार्य हुआ। भगवान् विश्वनाथ ने आचार्य शंकर को चाण्डाल रूप में दर्शन दिया और जब आचार्य ने उन्हें पहचानकर प्रणाम किया, प्रकट हो गये वे शशांकशेखर।
ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा गया। एक दिन सहसा एक वृद्ध ब्राह्मण एक सूत्र के अर्थ पर शंका कर बैठे। शास्त्रार्थ होने लगा और वह आठ दिन तक चलता रहा। पद्मपादाचार्य आश्चर्य में थे, कि उनके गुरुदेव से इस प्रकार शास्त्रार्थ करने वाला कौन आ गया। ध्यान करने पर उन्हें ज्ञात हुआ, स्वयं भगवान् व्यास ब्राह्मणरूप में उपस्थित हैं।
अतः उन्होंने प्रार्थना की—
'शंकरः शंकरः साक्षाद् व्यासो नारायणः स्वयम् ।
तयोविंवादे सम्प्राप्ते न जाने किं करोम्यहम्॥
आचार्य ने भगवान् व्यास को पहचाना, उनका वन्दन किया। व्यासजी प्रसन्न हुए— 'तुम्हारी आयु केवल सोलह वर्ष की है। वह समाप्त हो रही है। मैं तुम्हें सोलह वर्ष और देता हूँ। धर्म की प्रतिष्ठा करो!'
भगवान व्यास के आदेश से आचार्य वेदान्त के प्रचार, सनातनधर्म की प्रतिष्ठा और विरोधी तार्किकों को शास्त्रार्थ में पराजित करने में लग गये। काशी, कुरुक्षेत्र, बदरिकाश्रम से दक्षिण-भारत- रामेश्वर तक की उन्होंने यात्रा की।
प्रयाग में त्रिवेणी तट पर जब वे कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने पहुँचे, आचार्य कुमारिल तुषाग्नि (भूसी की अग्नि) में जलने को बैठ चुके थे। उन्होंने कहा 'मण्डन मेरा शिष्य है। उसकी पराजय से मैं ही पराजित हुआ, इस प्रकार मानना चाहिये।'
मण्डन मिश्र की पत्नी भारती मध्यस्था हुईं। शस्त्रार्थ पराजित होकर मण्डन मिश्र ने आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार किया। उनका नाम सुरेश्वराचार्य हुआ। आचार्य शंकर ने फिर भी श्रीकुमारिल भट्ट को श्रेष्ठ ही माना और अपने ग्रन्थों में उन्हें भगवत्पाद कहकर गुरु की भाँति सम्मानित किया है।
'मेरी साधना की सफलता के लिये एक तत्त्वज्ञ की बलि आवश्यक है। आपको शरीर का कोई मोह है नहीं।' एक दिन एकान्त में एक कापालिक ने आचार्य से प्रार्थना की।
"किसी को पता न लगे, अन्यथा लोग तुम्हें कष्ट देंगे। मैं स्वतः आ जाऊंगा।' उनको शरीर का क्या मोह। और अर्धरात्रि में श्मशान पहुँच गये आचार्य। कापालिक बलि का विधान करने लगा। आचार्य ने समाधि लगायी। कापालिक सिर काटने वाला था, इतने में पद्मपादाचार्य में उनके इष्टदेव भगवान नृसिंह का आदेश हुआ। आवेश में उन्होंने कापालिक को मार डाला।
सोलह वर्ष को अवस्था में आचार्य ने प्रस्थानत्रयी का मध्य पूर्ण कर लिया था। शेष सोलह वर्षों में सम्पूर्ण भारत में उन्होंने घूम-घूमकर धर्म को स्थापना की। उस समय पूरे देश में बौद्ध एवं कापालिकों के मत का प्राबल्य था। अधिकांश नरेश बौद्ध हो गये थे।
आचार्य शास्त्रार्थ के द्वारा बौद्ध पण्डितों को पराजित किया। राजाओं ने प्रजा के साथ उनके पावन उपदेश को स्वीकार किया। अशास्त्रीय उग्रतर सम्प्रदायों का दमन हुआ।
आचार्य के प्रभाव से देशव्यापी…
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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