' भारतीय स्वाधीनता के इस मूल मंत्र के गायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश में समुद्र तटके रत्नागिरी स्थान में २३ जुलाई सन् १८५६ को हुआ। उनके पिता गंगाधर राव स्थानीय पाठशाला के शिक्षक थे। बचपन में नियमपूर्वक पिता उन्हें श्लोक कण्ठ कराया करते थे। वे बाल्यकाल से तर्कशील एवं प्रचण्ड मनोवृत्ति के व्यक्ति थे। वकालत पास करके भी १८८५ ईस्वी में फर्ग्युसन कॉलेज में उन्होंने गणित के अध्यक्ष पद स्वीकार किया। देश की पराधीनता उनके प्राणों को सदा से आकुल करती थी। सन् १८९१ में 'केसरी' और 'मराठा' का सम्पादन हाथ में लेकर उन्होंने महाराष्ट्र में नवजीवन देना प्रारम्भ किया। उनकी लेखनी अग्नि के वाक्य लिखने लगी। केवल इस सम्पादन कार्य को संभालने के चार वर्ष बाद सन् १८९५ ईस्वी में वे बम्बई- धारा-सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। लेकिन अंग्रेज सरकार की दृष्टि में वे भयंकर सिद्ध हो चुके थे। प्लेगकमेटीके अध्यक्ष रेंडकी एक युवकने हत्या की और सरकारने लोकमान्यपर उसे उत्तेजित करनेका अभियोग लगाकर १४ सितम्बर सन् १८९७ को डेढ़ सालकी सजा दे दी।
लोकमान्य जेलसे छूटे। उन्हें महाराष्ट्रको जाग्रत् करना था। देशको विदेशी शासनके साथ विदेशी संस्कृति से मुक्त करनेकी धुन थी। महाराष्ट्रमें 'गणेशोत्सव' तथा 'शिवाजी जन्मोत्सव' उन्हींके प्रयत्नसे प्रारम्भ हुए। गोखले एवं रानडेकी नीति लोकमान्यको प्रिय नहीं थी। 'भीख माँगनेसे स्वाधीनता नहीं मिलती!' वे कांग्रेसमें गरमदलके अग्रणी थे और वह सूरत-कांग्रेसका अधिवेशन इतिहास में अमर रहेगा, जिसमें आक्रमण करके लोकमान्यने दक्षिण पक्षसे कांग्रेस छीन ली। कांग्रेस प्रार्थना करनेवाली वैधानिक संस्थासे उसी समय स्वतन्त्र राष्ट्रिय संस्था बनी, उसके राष्ट्रिय स्वरूपके संस्थापक लोकमान्य ही हैं।
महात्मा गान्धीके शब्दोंमें 'लोकमान्य सदा मेरे लिये अथाह समुद्र रहे।' सचमुच उनका ज्ञान अथाह था। उनकी सूक्ष्म दृष्टिने विदेशी राज्यके दोषके साथ विदेशी संस्कृतिके दोष बड़ी स्पष्टतासे देख लिये थे।
सनातनधर्म प्रचार, गोवध-निषेध, शिवाजीकी राष्ट्रियता, विद्यार्थियों में व्यायाम एवं देश-प्रेमका प्रचार और गीताकी महत्ताका लोकमें व्याख्यान-वे प्रमुख आन्दोलन थे लोकमान्यके। लोकमान्यका ही प्रभाव था कि उस समयके क्रान्तिकारी युवक गीताकी पुस्तक लेकर फाँसीके तख्तेपर चढ़नेमें गौरव मानते थे। सरकार उनसे भयभीत हो गयी। वे १९०२ में फिर गिरफ्तार करके देशसे बाहर मांडले जेलमें भेज दिये गये। यहीं जेलमें उन्होंने अपना महान् ग्रन्थ 'गीता-रहस्य' लिखा। जेलसे लौटकर वे होमरूल आन्दोलनमें सम्मिलित हो गये।
सन् १९१६ की लखनऊ-कांग्रेसमें लोकमान्य जर्मनयुद्धमें अंग्रेजोंको सहायता देने के सर्वथा विरुद्ध थे। महात्मा गान्धी बिना शर्त सहायता देने के पक्ष में थे। युद्धसमाप्तिपर भारतकी सहायता के बदले अंग्रेजोंकी ओरसे उसे रौलट एक्ट प्राप्त हुआ। देशने देखा कि लोकमान्य की चेतावनी अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई। वे सदा स्वाधीनता एवं भारतीय संस्कृतिके लिये प्रयत्नशील रहे। देश आज स्वाधीन है, लोकमान्यका एक प्रयत्न पूर्ण हुआ; किंतु उनका गोवध निषेध, भारतीय संस्कृतिके लिये प्रयत्न- क्या देशके अग्रणी उस महान् दिवंगत नेताको तुष्ट करेंगे ?
लोकमान्यने खोजके सम्बन्धमें 'ओरायन' एवं ‘आर्योंका आर्कटिक निवास'- ये दो ग्रन्थ लिखे सही, परंतु जीवनके पिछले दिनोंमें उन्होंने मान लिया था कि वे बहुत बड़ी भूलें कर गये हैं और इसका कारण अंग्रेजीकी पाश्चात्त्य अन्वेषकोंकी पुस्तकें हैं। हमें विश्वस्त सूत्रसे ज्ञात हुआ है कि वे उन भूलोंको सुधारना भी चाहते थे, परंतु ३१ जुलाई सन् १९२० को उन्हें परलोकका निमन्त्रण आ पहुँचा। बम्बईमें पाँच लाख जनताने समुद्रतटतक उनके शरीरको पहुँचाया। महात्मा गान्धी भी उसमें थे। कहते हैं, लोकमान्यकी जलती चितामें उनके वियोगसे व्याकुल एक मुसलमान युवक कूद पड़ा था। उनकी लोकप्रियताने ही उन्हें लोकमान्य बनाया था। स्वाधीनता संग्राममें वे भारतीय सांस्कृतिक योधा थे और अब भी उनका कार्य अधूरा ही है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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