Published By:दिनेश मालवीय

अकेलापन बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या, परिवार से बड़ा कुछ भी नहीं.. दिनेश मालवीय

अकेलापन बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या, परिवार से बड़ा कुछ भी नहीं.. दिनेश मालवीय आज अखबार की एक खबर ने मन को बहुत उद्वेलित कर दिया. एक सेवानुवृत बैंक कर्मी बुजुर्ग को उसके बेटे, बहू और उसकी खुद की पत्नी ने भोपाल में अकेला छोड़ दिया. वे सभी लोग नागपुर में जाकर रहने लगे. बुजुर्ग ने एसडीएम कोर में भरा-पोषण भत्ते का केस दर्ज करदिया. एसडीएम ने निर्णय दिया कि पुत्र पिता को यह भत्ता दे. इस पर बुजुर्ग ने कहा कि उन्हें पैसा-धेला नहीं चाहिए, वह सिर्फ अपने परिवार के साथ रहना चाहते हैं. वैसे तो वह अकेले रह ही रहे थे,लेकिन बीते कोरोनाकल में उन्होंने अकेलेपन का जो दंश झेला, उससे वह टूट गए. 

इसी के कारण उन्हें महसूस हुआ कि, सारी धन-दौलत से बढ़कर परिवार का साथ होता है. यह अपने आप में कोई अकेला मामला नहीं है. हमारे देश में आजकल बुजुर्गों की उपेक्षा ने एक महामारी का रूप ले लिया है. मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि आज पारिवारिक-सामाजिक विघटन भारत के सामने सबसे बड़ा संकट है. बाकी जो भी चुनौतियां हैं, उनसे निपटने में भारत सक्षम है. लेकिन इस चुनौती से निपटने का फिलहाल कोई रास्ता नज़र नहीं आता. बुजुर्गो की तो बहुत सारी समसयाएं हैं.

 बुढापा अपने आप में खुद एक बहुत बड़ी समस्या है. शरीर साथ छोड़ने लगता है, याददाश्त और सहनशक्ति बहुत कम हो जाती है. बीमारियाँ घेर लेती हैं. बहुत से कामों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है. खैर, यह सब तो वे किसी तरह सहन करते हुए जी लेते हैं. लेकिन उनकी सबसे बड़ी समस्या है अकेलेपन का अहसास. बच्चों के जाने-अनजाने गलत व्यवहार के कारण उन्हें अपना घर ही पराया लगने लगता है. उन्हें लगता है कि, अब घर में उनकी कोई ज़रुरत नहीं रह गयी है. बहुत अधिक उपेक्षित, बीमार और असहाय हो जाने पर, वे दिन-रात ईश्वर से मौत की प्रार्थना करते हैं, लेकिन मौत का वक्त तो तय होता है.

 इसके अलावा, यह देखा गया है कि मौत माँगने वालों को यह बहुत मुश्किल से मिलती है. बहुत छोटी-छोटी बातें हैं, जिनका ध्यान रखकर बहुत सी समस्याओं से बचा जा सकता है. कभी परिवार के लोगों के मन में बुजुर्गों के प्रति कोई बुरा भाव नहीं होता, लेकिन उनकी किसी बात पर वे इतनी बुरी तरह झुंझलाकर कुछ बोल जाते हैं कि, यह लहजा बुजुर्गों के मन को चीर जाता है. कहने वाला सहज भाव से कहकर चला जाता है. कुछ देर बाद उसे भूल भी जाता है, लेकिन बुजुर्ग उसे मन में पालकर बैठे हुए दुखी होते रहते हैं. उनके पास खाली समय बहुत होता है, लिहाजा वह उसी बात को लेकर बहुत घुनते रहते हैं.

 ऐसा सिर्फ भारत में होता हो, ऐसा नहीं है. यूरोप के देशों में भी यह समस्या कम नहीं है. वहाँ भी बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या अकेलापन ही है. वहाँ भी बुजुर्ग बहुत अकेलापन महसूस करते हैं. अनेक पश्चिमी देशों में किये गये अध्ययनों से पता चला है कि ज्यादा समय तक समाज से अलग-थलग रहने की वजह से सेहत से जुडी कई दिक्कतें आ जाती हैं, जिनमें डिप्रेशन और स्ट्रेस मुख्य हैं. इससे उनकी रोगों से लड़ने की ताकत कम हो जाती है. खैर, पश्चिमी देशों में तो अधिकतर बुजुर्ग अलग ही रहते हैं. बच्चों के साथ रहने वाले बुजुर्गों की संख्या कम ही है. 

या तो वे ओल्ड एज होम्स में रहते हैं, या बच्चों से अलग. लेकिन भारत में अधिकतर बुजुर्ग बच्चों के साथ ही रहते हैं. हालाकि अब देश में बुजुर्गों द्वारा वृद्धाश्रमों में रहने का चलन बढ़ रहा है, जो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. जो बुजुर्ग अपने बच्चों के साथ रहते हैं, उनके साथ बच्चों तथा परिवार के दूसरे सदस्यों का रवैया अधिकतर बहुत अच्छा नहीं रहता. हालाकि अनेक परिवारों में बुजुर्गों का बहुत सम्मान होता है और उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं रखी जाती, लेकिन ऐसे सौभाग्यशाली और संस्कारित परिवारों की संख्या कम ही देखने को मिलती है. कोरोना काल में बुजुर्गों की समस्याएं और अधिक बढ़ गयीं. डॉक्टर्स का कहना है कि, इस महामारी से बुजुर्गों की जान को ज्यादा जोखिम है. इसके कारण उन पर अनेक पाबंदियां आयद कर दी गयीं. पहले वे मंदिर हो आते है, अपने हमउम्र लोगों के साथ कुछ समय बिताकर दुःख-सुख साझा कर आते थे, भजन-कीर्तन में चले जाते थे, कथा-भागवत सुनने चले जाते थे. कुछ हलकी-फुल्की गपशप भी हो जाती थी. लेकिन कोरोना के जोखिम के चलते उन्हें एक तरह से घर में कैद कर दिया गया.

 इसके पीछे उनके स्वास्थ्य की चिंता तो निश्चित ही रही, लेकिन यह चिंता भी कम नहीं रही कि, कहीं ये संक्रमित हो गये तो पूरे घर को संक्रमण होने का खतरा है. कुछ परिवारों में ऐसा भी हुआ कि घर में सीमित रहने के कारण परिवार के सदस्य बुजुर्गों के अधिक करीब आ गए. उन्होंने उनके साथ अधिक समय भी बिताया. लेकिन देखने में तो यही आया है कि, अधिकतर परिवारों में बड़े और बच्चे सभी अपने-अपने मोबाइल में ही उलझे रहे और बुजुर्गों की स्थिति जस की तस रही. वैसे हर बात के दो पहलू होते हैं. बुजुर्गों को भी बच्चों के साथ कुछ एडजस्ट करना आना चाहिए. बहू के साथ खटपट बहुत आम बात है. लेकिन उन्हें बड़प्पन दिखाते हुए, अपने अनुभव के आधार पर स्थिति को सम्हालना चाहिए. 

परिवार में बहू के महत्व को समझकर उसके साथ व्यवहार करना चाहिए. ऐसा नहीं होने पर सबसे ज्यादा फजीहत बेटों की होती है. वे न अपनी पत्नी को छोड़ सकते और न माता-पिता को. उसे दोनों के मान-सम्मान के लिए अनेक समझौते करने पड़ते हैं. इससे उपजे अनेक प्रकार के तनावों के कारण उनकी शारीरिक-मानसिक सेहत पर बुरा असर पड़ता है. लिहाजा इस बात का पूरा ख्याल रखें कि उनके व्यवहार से घर में कलह नहीं हो. सौभाग्यशाली हैं वो लोग, जिनके घर में बुजुर्ग हैं. यह भी एक कटु सत्य है कि बुजुर्गों का महत्त्व उनके न रहने पर ही समझ आता है. कुछ समय घर के बुजुर्गों के साथ अवश्य बिताएं. वे लोग अभागे हैं जो यह कहते हैं कि, माता-पिता उनके साथ रहते हैं. सौभाग्यशाली वे हैं, जो कहते हैं कि हम माता-पिता के साथ रहते हैं. बुजुर्गों को सहेज कर रखिये.

 उनके साथ अच्छा व्यवहार कीजिए. उनकी कोई बात आपको नागवार भी लगे, तो उसकी अनदेखी करें. वे अपने आशीषों से आपकी झोली भर कर जायेंगे. कुछ ही दोनों में पितृपक्ष आने वाला है. इस दौरान अपने पूर्वजों को तर्पण कर उनकी सद्गति के लिए प्रार्थना करने के साथ अपने जीवित बुजुर्गों की सेवा का भी संकल्प ले. बाक़ी सेवायें अपनी जगह हैं, उनकी सबसे बड़ी सेवा यह है कि, उनके साथ कुछ समय बिताएं. वे जो कुछ कर रहे हैं, उसे ध्यान से सुनें. घर के बच्चों को भी इस तरह शिक्षित करें कि वे कुछ समय परिवार के बुजुर्गों के साथ बिताएं.

 

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