महर्षि अत्रि तप कर रहे थे। उनके मन में केवल पितामह की सृष्टि वर्धित करने का आदेश था।
'मैंने एक ही जगदाधार की आराधना की है।' महर्षि को आश्चर्य हुआ। उनके सम्मुख वृषभ रूढ़ कर्पूर गौरम भगवान शशांक शेखर, हंस पर विराजमान सिन्दूरारुण भगवान चतुरानन और गरुड़ की पीठ पर शंख, चक्र, गदा, पद्म धारी मेघ सुंदर श्रीरमानाथ एक साथ प्रकट हुए थे।
जगत्के तो तीनों ही अधिष्ठाता हैं। प्रभु त्रिमूर्ति में ही जगत का विनाश, सृष्टि और पालन करते हैं। महर्षि ने तीनों की पूजा की। तीनों की स्तुति की। तीनों के अंश से संतान प्राप्ति का उन्हें वरदान मिला।
महासती अनसूया की गोद तीन कुमारों से भूषित हुई। भगवान शंकर के अंश से तपोमूर्ति महर्षि दुर्वासा, भगवान ब्रह्मा के अंश से सचराचर पोषक चन्द्रमा और भगवान विष्णु के अंश से त्रिमुख, गौरवर्ण, ज्ञान मूर्ति श्री दत्तात्रेय प्रभु ।
भगवान दत्तात्रेय आदि युग में प्रहलाद के उपदेष्टा हैं। अजगर मुनि के वेश में प्रह्लाद जी को उन्होंने अवधूत की स्थिति का उपदेश किया है। महाराज अलर्क को उन्होंने तत्वज्ञान का उपदेश किया। कुत्तों से घिरे, उन्मत्त-सा वेश बनाये, उन सिद्धों के परमाचार्य को पहचानना बहुत उच्च कोटि के अधिकारी का ही काम गिरिनार प्रभु का सिद्ध पीठ है।
दक्षिण में दत्तात्रेय की उपासना का व्यापक प्रचार है। सिद्धों की एक परंपरा ही भगवान दत्तात्रेय को उपास्य मानती आयी है। इनमें 'रस-सिद्धि' का बहुत प्रचार था। ये सिद्धियाँ भले लोगों को प्रलुब्ध करें और कुतूहल या कामनावश सामान्य साधक इन्हीं को लक्ष्य बनाते हों; परंतु भगवान दत्तात्रेय के उपदेश मनुष्य को इन प्रलोभनों से सावधान करते हैं।
साधन के द्वारा परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति ही मनुष्य का सच्चा लक्ष्य है। योग सम्बन्धी अनेक ग्रंथ भगवान दत्तात्रेय के कहे जाते हैं। दक्षिण में भगवान दत्त की उपासना का बहुत प्रचार है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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