भगवान 'विवस्वते प्रोक्तवान्' पदों से साधकों को मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते ही रहते हैं अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं और सबको प्रकाशित करने पर भी स्वयं निर्लिप्त रहते हैं, ऐसे ही साधकों को भी प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मों का पालन स्वयं करते रहना चाहिए और दूसरों को भी कर्मयोग की शिक्षा देकर लोकसंग्रह करते रहना चाहिए; पर स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम, निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण ने साधकों को "विवस्वते प्रोक्तवान्" कहा है, जिसका अर्थ है कि वे सूर्य की तरह सदैव गतिमान रहते हैं और कर्म करते रहते हैं, जबकि वे सभी को प्रकाशित करते हैं लेकिन स्वयं निर्लिप्त (आसक्ति रहित) रहते हैं।
साधकों को भी इसी तरीके से अपने कर्तव्य-कर्मों का पालन करना चाहिए और उन्हें जो भी परिस्थितियाँ प्राप्त हों, उन्हें उसी अनुसार स्वयं करना चाहिए। वे दूसरों को कर्मयोग की शिक्षा देकर लोकसंग्रह करते रहें, लेकिन स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम, निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिए। यह गीता के तीसरे अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में व्याख्यायित किया गया है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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