जिसकी नीयत साफ होती है उसकी नियति भी साफ होती है
सर्वप्रथम हमें यह मानना होगा कि प्रभु सबका स्वामी है। हम 50 या अधिक से अधिक 100 वर्ष के मेहमान हैं। हमारा आना- जाना लगा रहता है। परन्तु जब व्यक्ति यहाँ रहता है तो इसी विचार में खोया रहता है, यह मेरी भूमि है, यह मेरा परिवार है। यह मेरा शरीर है। यह मेरी संपत्ति है। और जब भगवान का आदेश मिलता है तो हमें वह अपना घर, अपनी संपत्ति, अपना परिवार, अपना पैसा और अपना बैंक में जमा सब धन यहीं छोड़कर कहीं ओर जाना पड़ता है।
हम भौतिक प्रकृति के नियंत्रण में हैं। और वह हमें अनेक प्रकार के शरीर प्रदान करती है। हम भारतीय शरीर, अमेरिकी शरीर, चीनी शरीर या पशु का शरीर स्वीकार करते हैं। मैं इस शरीर का स्वामी नहीं हूँ, फिर भी कहता हूँ कि मैं यह शरीर हूँ।
वास्तव में यह अज्ञान है। वह शांति कैसे प्राप्त कर सकता है? शांति तभी प्राप्त हो सकती है, जब हम समझें कि प्रभु ही सब वस्तुओं के स्वामी हैं। किसी का मित्र, किसी की माँ, किसी का भाई और सभी समय के मेहमान हैं। जब मानव द्वारा यह ज्ञान स्वीकार कर लिया जाएगा तभी शांति होगी।
हम ऐसे मित्र की खोज में हैं, जो हमें शांति दे सके। वह मित्र प्रभु ही है। यदि हम उससे मित्रता कर लें, तो पाएंगे कि सभी हमारे मित्र हो गये हैं। क्योंकि भगवान सबके हृदय में हैं, इसलिए यदि हम भगवान से मित्रता करते हैं तो वह अंतर्मन में आदेश देगा और हम सब मैत्रीपूर्ण ढंग से व्यवहार करने लगेंगे।
बस प्रभु से मित्रता करने की कोशिश करें, प्रत्येक व्यक्ति हमारा मित्र बन जाएगा। यदि सभी लोग इस अति-श्रेष्ठ सत्य को समझ लें कि प्रभु सभी के मित्र हैं और वे ही परम स्वामी हैं तो सभी शांति प्राप्त कर लेंगे।
वस्तुत: प्रभु ही एकमात्र स्वामी हैं। वे ही एकमात्र मित्र हैं। यदि हम यह समझते हैं तो हम शांति प्राप्त कर लेंगे। यही शांति का सूत्र है। हम स्वामी नहीं हैं। हम उतना ही रख सकते हैं जितना प्रभु ने हमारे लिए नियत किया है। जिसकी नीयत साफ होती है उसकी नियति भी साफ होती है।
अत: प्रभु को सखा - भाव से देखें उसे अपना मित्र बनाएं। मित्र का अर्थ है जो मि+त्र अर्थात अंधकार और भय से रक्षा करे। सूर्य को भी मित्र कहा गया है। प्रभु भक्त को निर्भय, निर्वैर, निर्दोष, वीतराग, वीतमोह, वीतद्वेष आदि बना के अपनी शरण में ले लेता है, वह सूर्य सम ज्योति होकर प्रकाशमय हो उठता है।
विद्यालंकार
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