Published By:धर्म पुराण डेस्क

भगवान शंकर..

जो अनादि है, अनंत है, बुद्धि से परे है, उसके चारु चरिताँ का क्या कहीं अंत है। उसी के चरित स्मरणीय हैं।

अल्प शक्ति, अल्पप्राण सामान्य मानव का सामान्य चरित क्या अर्थ रखता है। उससे किसी का क्या लाभ उन महिमामय चन्द्रचूड प्रभु के कुछ चरितों का स्मरण मात्र किया जा सकता है। उनका वर्णन तो समाप्त होने वाला है ही नहीं। 

कल्पभेद से उन सर्वाधार के देव जगत् (आधिदैविक जगत्) में आविर्भाव के अनेक प्रकार के वर्णन शास्त्रों में हैं। किसी कल्प में स्वयंभू ज्योतिर्लिंग रूप में और कभी दूसरे प्रकार से। वस्तुतः तो वे एक ही महेश्वर जगत की सृष्टि, पालन और संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश का त्रिविध रूप धारण करते हैं।

वर्तमान सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम मानसिक सृष्टि की सनकादि चारों कुमारों की । पहले ही पुत्रों ने सृष्टि करने की आज्ञा अस्वीकार कर दी। ब्रह्माजी को बड़ा रोष आया। उन्होंने अपने क्रोध को संयत करना चाहा। फलतः उनके भ्रूमध्य से वह रोष नीललोहित कुमार बनकर प्रकट हो गया। उत्पन्न होते ही वे भगवान् भव रोने लगे। उन्होंने अपना नाम और स्थान पूछा। रोने के कारण उनका नाम 'रुद्र' पड़ा। 

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा- 'रुद्राणां शंकरश्चास्मि' और उन्होंने ही श्रीमद्भागवत में 'रुद्राणां नीललोहितः' कहा। इस प्रकार रुद्रों में भगवान का नीललोहित रूप ही शंकर स्वरूप यह कहा गया।

मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतुध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत-- ये एकादश रुद्र रूप हैं उन प्रभु के। हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र और तप- ये उनके ग्यारह स्थान हैं। धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुति, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा- ये क्रमशः उनकी पत्नियां हैं। 

ब्रह्मा जी ने उन्हें सृष्टि करने की आज्ञा दी। स्वभावानुरूप प्रेत, पिशाच, भैरव, विनायक, यातुधान, डाकिनी, शाकिनी, कूष्माण्ड, बेताल, विनायक, योगिनी आदि की उन्होंने रचना की। ये सब उनके गण हुए। ब्रह्माजी ने इस विकट सृष्टि से रोककर उनको तप करने का आदेश दिया। प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती का विवाह भगवान शंकर से किया। 

ब्रह्म-सभा में दक्ष के आगमन के समय भगवान शंकर ने उनका अभ्युत्थान से आदर नहीं किया। रुष्ट दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि 'आगे से यज्ञ में इनको भाग नहीं मिलेगा।' जब दक्ष प्रजापतियों में श्रेष्ठ माने गए, उन्होंने यज्ञ प्रारम्भ किया। भगवान शंकर को निमंत्रण नहीं दिया गया था। 

विमान से जाती देवांगनाओं द्वारा सती ने पिता के महोत्सव का पता पाया। वे अनिमन्त्रित थीं, भगवान शिव मना कर रहे थे; फिर भी हठपूर्वक वे पिता के घर आयीं। वहाँ देखा कि यज्ञ में भगवान शंकर को भाग नहीं दिया जा रहा है। पति के अपमान से क्षुब्ध होकर योगाग्नि प्रकट करके वे वही भस्म हो गयीं। रुद्रानुचर उत्पात अवश्य करते, पर महर्षि भृगु ने दक्षिणाग्नि से ऋभुगण उत्पन्न किये। उन ऋभुओं ने जलती लकड़ियों की मार से रुद्रगणों को भगा दिया।

भगवान शंकर को समाचार मिला। उन प्रलयंकरने रोष से अट्टहास करके एक जटा उखाड़ी वीरभद्र प्रकट हुए। उन्होंने यज्ञ ध्वंस कर डाला। भृगु की दाढ़ी उखाड़ ली। पूषा को दन्त और भगदेवता को नेत्रों से हीन कर दिया। दक्ष का मस्तक आहुति बन गया। अन्त में सब देवता भगवान शंकर की शरण गये। भगवान के आदेश से नवजात बकरे का सिर दक्ष की देह पर रखा गया। वे जीवित हो गये। यज्ञ पूर्ण हो गया।

भगवती सती ने दूसरा जन्म पर्वतराज हिमवान् के यहां धारण किया। देवर्षि नारद के उपदेश से उन्होंने शंकर जी को प्राप्त करने के लिये कठोर तप प्रारम्भ किया। वे उमा सूखे बेलपत्र को भी छोड़कर अपर्णा हो गयीं। देवताओं को आवश्यकता थी कि भगवान शंकर का परिणय हो। 

असुर तारक ने स्वर्ग पर आधिपत्य कर लिया था। उसने ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर लिया था कि केवल शंकर जी के औरस पुत्र ही उसका वध कर सकेंगे। भगवान शंकर का विवाह हो तो पुत्र हो । भगवान तो समाधि में स्थित हैं। देवताओं ने काम को वसंत का प्रादुर्भाव हुआ। उसी समय वहाँ पार्वती जी पहुंचीं।

पुष्पधन्वा के बाण से सम्मोहनास्त्र छूटा। तनिक विकार आया। समाधि भंग हुई। विकार का कारण इधर-उधर देखने पर मदन दृष्टिगोचर हुआ। तृतीय नेत्र की ज्वाला में कामारी ने उसे भस्म कर दिया। तभी से काम अनंग हो गया।

श्री पार्वती जी की तपस्या काम के भस्म होने पर भी सफल हुई। भगवान शंकर ने उनका पाणिग्रहण किया। भगवान के औरस पुत्र कुमार कार्तिकेय ने तारक को संग्राम में मारा। भगवती पार्वती से संतुष्ट होकर शंकर जी ने उन्हें अपने आधे शरीर में ही स्थान दे दिया और अर्धनारीश्वर हो गये।

क्षीरोदधि का मंथन हो रहा था। सबसे पहले हालाहल प्रकट हुआ। समस्त प्राणी विष की भीषण ज्वाला से जलने लगे। प्रजापतिगण ने प्रार्थना की। आशुतोष द्रवित हुए। उन्होंने विष को एकत्र करके वाम करतल पर उठाया और पी लिया। विष कण्ठ में अवरुद्ध कर दिया गया, अतः कंठ नीला हो गया। भगवान नीलकंठ को समुद्र से निकला शशि शिरोभूषण बनकर भूषित करने लगा।

मयने स्वर्ण, रजत और लौह के तीन नगर बनाए थे। ये नगर गगन में उड़ते रहते थे। मयके तीनों पुत्र इनके अधिपति थे। वे दानव पृथ्वी पर चाहे जहां नगरों को उतारकर भूतल के प्राणियों का नाश कर डालते। गगन में देवताओं के विमानों को तोड़ डालते। 

देवलोक तथा लोकपालों की दिव्य पुरिया उन विमानों से ध्वस्त होती रहती। सबने विवश होकर भगवान विश्वनाथ की शरण ली। पिनाकपाणि प्रभु असुरों से युद्ध करने लगे। मयने अमृत-रस का कूप बना लिया था। युद्ध में मृत दानव कूप में डाले जाते और जीवित हो जाते। 

भगवान विष्णु ने गो रूप धारण किया, ब्रह्माजी बछड़े बने। इतनी सुन्दर गौ का मोह दानव छोड़ न सके। गौने देखते-देखते कूप का समस्त रस पी लिया। देवमय रथ पर भगवान  शंकर विराजमान हुए। तीनों पुर आधेक्ष के लिये परस्पर एक में मिले। इसी समय बाण छूटा और वे भस्म हो गये।

अन्धक, बाणासुर, मय-सभी असुर तो भगवान शिव की आराधना से ही सफल हुए। मयसे बढ़कर कौन उनका नैष्ठिक सेवक रहा? सब गर्वोन्मत्त हुए, किंतु सबको उन दयामय की दया ही प्राप्त हुई। बाणासुर के लिये वे स्वयं श्रीकृष्ण से संग्राम करने आये। रावण ने कैलास ही उठाना चाहा था। अपने दस मस्तकों की आहुति देकर उसने त्रिलोकी का वैभव प्राप्त किया।

भगवान शंकर के अनेक रूप है, अनन्त नाम है, अनंत चरित हैं। वे कुन्दगौर शिव हैं, वे नीललोहित रुद्र हैं, वे महाज्वालाकार प्रलयंकर हैं, महाकाल हैं। पुराणों में ही उनके इतने चरित हैं कि सबकी सूची ही एक ग्रन्थ हो जाए। उन्होंने समय-समय पर अवतार धारण कर शैवमत की लोक में स्थापना की है। अघोर, वामदेवदि रूप से शिवाचार्य होकर वे धरा पर पधारे हैं। नैष्ठिक रूप से भगवान शंकर की आराधना कई शैव सम्प्रदायों में होती है।

भारत में ऐसा कोई ग्राम कदाचित् ही होगा, जहां हिंदू-जाति के लोग हों और भगवान शंकर की लिंगमूर्ति न प्राप्त हो। वैसे तो पंचवक्त्र, एकवक्त्र आदि श्रीविग्रह भी प्राचीन काल से पाये जाते हैं; किंतु भगवान शिव का मुख्य उपासना-विग्रह उनकी लिंगमूर्ति ही है। यह अनादि ऋषि परम्परा में प्रतिष्ठित लिंगोपासना श्रुति, स्मृति, पुराण से प्रतिपादित है। स्मृति की पंचदेवोपासना में भगवान शंकर इसी रूप में अर्चित होते हैं।

लिंग पूजा क्या है? शक्ति और शक्तिमान का प्रतीक। पुरुष-प्रकृति का सहज चिह्न। इसे कोई ऐन्द्रियक चिह्न मानकर अपने मन को विकृत करे तो यह उसके भीतर का ही कलुष है। प्रतिमा काल्पनिक नहीं हुआ करती। वह वास्तविक की प्रतिमूर्ति होती हैं। जगत में वैज्ञानिक इस मूर्ति को अणु-अणु में देख सकता है। 

ऋणात्मक इलेक्ट्रॉन या विद्युत और धनात्मक प्रोटॉन या विद्युत किस आकृति पर युक्त होते हैं? चुम्बक जब लौह को खींचता है, दोनों की शक्ति का क्या रूप होता है? प्रकृति में वही प्रतीक है सर्वत्र लिंग विग्रह शिव का शक्ति समन्वित प्रतीक है। वह साधक को उस परमपुरुष एकाग्र कर देता है।

सम्पूर्ण विद्याओं तथा कलाओं के भगवान् शंकर आदि आचार्य हैं। व्याकरण तो माहेश्वर सूत्रों से ही निकला है। संगीत उनके डमरू के नाद की देन है और  ताण्डव तथा लास्य नृत्यों के वही विधायक हैं।


 

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