 Published By:दिनेश मालवीय
 Published By:दिनेश मालवीय
					 
					
                    
सनातन धर्म के अनुसार चार युग होते हैं -सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग. हर युग की अपनी विशेषता और धर्म होते हैं. इसका रहस्य बहुत ज्ञानी लोग भी नहीं जान पाते. महाभारत में चारों युगों के धर्म को ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमानजी ने महाबली भीमसेन को समझाये हैं. यह प्रसंग तो बहुत प्रचलित है ही, कि पत्नी द्रौपदी की इच्छा पूरी करने के लिए भीमसेन एक विशेष फूल लेने के लिए गंधमादन पर्वत की ओर जाते हैं. रास्ते में हनुमानजी एक वृद्ध वानर  का रूप रखकर उनके मार्ग में लेट जाते हैं. वानर की पूँछ को लांघना धर्म विरुद्ध होता, इसलिए भीमसेन उनसे अपनी पूँछ हटाने के लिए कहते हैं. हनुमानजी कहते हैं, कि मैं तो बूढ़ा और कमज़ोर हो गया हूँ, तुम्हीं इसे हटा दो. पूरी ताकत लगाने के बाद भी भीमसेन उस पूँछ को हटाना तो दूर, उसे ज़रा सा हिला भी नहीं पाते. भीमसेन का गर्व चूर हो जाता ही. फिर प्रार्थना करने पर हनुमानजी भीमसेन को अपना असली रूप दिखाते हैं.
हनुमानजी और भीमसेन दोनों के बीच पवनदेव के पुत्र होने के कारण भाई का सम्बंध है. दोनों भाइयों के बीच बहुत ज्ञानप्रद और रोचक संवाद होता है. हनुमानजी भीमसेन को श्रीराम का चरित्र विस्तार से सुनते हैं. इसके बाद भीमसेन कहते हैं, कि आप मुझे युगों की संख्या बताइये. प्रत्येक युग में जो आचार, धर्म, अर्ध एवं काम के तत्व, शुभाशुभ कर्म, उन करों की शक्ति और उत्पत्ति तथा विनाश आदि के जो भाव होते हैं, उन्हें मुझे बताने की कृपा करें. हनुमानजी कहते हैं, कि सबसे पहला सतयुग या कृतयुग है. इसमें सनातन धर्म की पूर्ण स्थति रहती है. इसका नाम कृतयुग इसलिए पड़ा,क्योंकि उस समय उत्तम युग के लोग अपना सभी कर्तव्य कर्म संपन्न कर लेते थे. उनके लिए कुछ करना शेष नहीं रहता था. उस समय धर्म का ह्रास नहीं होता था. माता-पिता के रहते हुए संतान का नाश नहीं होता था.
कृतयुग में देवता, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और नाग परस्पर भेद-भाव नहीं रखते. उस समय क्रय-विक्रय का व्यवहार भी नहीं होता. एक ही वेद था और इसका विभाजन नहीं हुआ था. कृषि आदि जैसी कोई मानवी क्रिया नहीं होती. सबको जो भी चाहिए, वह इच्छा करते ही मिल जाता है. सत्ययुग में एक ही धर्म रहता है - स्वार्थ का त्याग. उस युग में बीमारी नहीं थी. कोई किसीको दुःख
नहीं देता. लोगों के मन में विकार नहीं होते. हनुमानजी ने सबसे बड़ी बात यह बतायी, कि सतयुग में सभी जीवों के अंतरात्मा भगवान् नारायण का रंग शुक्ल यानी गोरा होता है. चारों वर्ण के लोग शुभ लक्षणों से संपन्न थे. सभी आश्रम धर्म का पालन करते थे. इसका प्रतीक अर्थ यह भी है, कि इस युग में धर्म का स्वरूप बहुत उज्जवल और धवल रहता है.
हनुमानजी ने कहा, कि इसके बाद त्रेता युग आया. इसमें धर्म के एक चरण का ह्रास हो जाता है. भगवान का रंग लाल हो जाता है. इसका प्रतीकात्मक अर्थ यह भी है, कि इस युग में उत्साह और पराक्रम की प्रधानता होती है. लोग सत्य में तत्पर रहते हैं. शास्त्रोक्त यज्ञक्रिया करते हैं.  इस युग में यज्ञ, धर्म और नाना प्रकार के सत्कर्म आरम्भ होते हैं. लोगों को अपनी भावना और संकल्प के अनुसार वेदोक्त कर्म और दान आदि के द्वारा अभीष्ट की प्राप्ति होती है. मनुष्य तप और दान में तत्पर रहकर अपने धर्म से कभी विचलित नहीं होते.
तीसरा युग द्वापर है, जिसमें धर्म के दो ही चरण रह गये. उस समय भगवान्विष्णु का स्वरूप पीले रंग का हो गया. इसका पतीकात्मक अर्थ है, कि धर्म की अवस्था क्षीण हो जाती है. इस युग में वे का चार भागों में विभाजित हो गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद.  कुछ विद्वान् चारों वेदों के ज्ञाता, कुछ तीन के , कुछ दो वेदों के ज्ञाता होते थे. कुछ तो वेद की ऋचाओं के ज्ञान से एकदम शून्य होते हैं. इस प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रों के होने से उनके बताये हुए कर्मों में भी अनेक भेद हो जाते हैं. प्रजा तप और दान में प्रवृत्त होकर राजसी हो जाते हैं. इस युग में सात्विक बुद्धि का क्षय होने के कारण कोई विरला ही सत्य में स्थित होता है.  लोगों में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं. अनेक प्रकार की कामनाएं पैदा होजाती हैं. वे बहुत से दैवी उपद्रवों से पीड़ित हो जाते हैं. इन सबसे पीड़ित होक लोग तप करने लगते हैं. कुछ लोग भोग और स्वर्ग की कामना से यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं.  इस प्रकार द्वापरयुग के आने पर अधर्म के कारण प्रजा क्षीण होने लगती है.
इसके बाद कलियुग में धर्म एक ही चरण में स्थित होता है. इसमें भगवान्विष्णु के श्रीविग्रह का रंग काला हो जाता है. इसका प्रतीकात्मक अर्थ यह है, कि तमोगुण प्रधान हो जाता है. वैदिक सदाचार, धर्म और यज्ञ-कर्म नष्ट हो जाते हैं. बीमारियाँ, आलस्य, क्रोध आदि मानसिक रोग और भूख-प्यास का भय बढ़ जाता है. ये सभी उपद्रव बहुत बढ़ जाते हैं. युगों के परिवर्तन होने पर आने वाले युगों के अनुसार धर्म का भी ह्रास होता जाता है. इस प्रकार धर्म के क्षीण होने से सुख-सुविधा का भी क्षय होने लगता है. लोक के क्षीण होने पर उसके प्रवर्तक भावों का भी क्षय हो जाता है. धर्म के गलत पालन से वह विपरीत फल देने लगता है.
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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