Published By:धर्म पुराण डेस्क

सृष्टि की सृजनात्मक ऊर्जा है प्रेम

परमात्मा की बनाई हुई यह सृष्टि प्रेम के बिना अधूरी है। प्रेम प्रकृति के कण-कण में घुला हुआ है, प्रेम के कारण ही इस प्रकृति में जीवन संभव हो पाया है। प्रेम के कारण ही सब एक दूसरे से बंधे हुए हैं। जैसे ही यह प्रेम कम पड़ता है, विलग होता है, विनाशकारी, विध्वंसक घटनाएं घटने लगती है। 

प्रेम की ही वह पुकार है, जिसके कारण प्रकृति इतनी समृद्ध, सुंदर, सम्मोहक व शृंगारित है, प्रेम का अलगाव होते ही प्रकृति भी अपना भयानक रूप प्रकट करती है। प्रेम से परिपूर्ण होने पर प्रकृति पोषण करती है, संरक्षण देती है। और प्रेम से विलग होने पर वही प्रकृति भाँति-भाँति के विनाश रचती है, विध्वंस करती है।

प्रेम क्या है? प्रेम वास्तव में इस सृष्टि के अंदर निहित सृजनात्मक ऊर्जा का नाम है, जिसके कारण सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। चूँकि प्रकृति में मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पतियां सभी आते हैं, इसलिए इन सबके अंदर भी प्रेम किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है। 

प्रकृति में प्रेम एक अनिवार्य तत्व है, इसके बिना जीवन असंभव है, वंशवृद्धि असंभव है। पशु-पक्षी एक दूसरे से प्रेम करते हैं, जैसे- पशु अपने प्रेम की अभिव्यक्ति में एक दूसरे को चाटते हैं, सूंघते हैं, साथ खेलते हैं, खाते हैं, समूह में प्रेम से रहते हैं, अपनी वाणी से एक दूसरे को बुलाते हैं, एक दूसरे को भली भाँति पहचानते हैं और अपने किसी साथी का वियोग होने पर दुःखी भी होते हैं। 

पशु-पक्षी प्रेमवश ही अपने बच्चों का बहुत ध्यान रखते हैं, उन्हें आहार देते हैं, सुरक्षा देते हैं। गाय-भैंस यदि अपने बच्चों को दूध पिलाती हैं तो पक्षी अपने बच्चों के लिए अपनी चोंच में दाना लाकर उनकी चोंच में डालते हैं, इससे उनके बच्चे अत्यंत प्रसन्न होते हैं। और इसकी अभिव्यक्ति करने के लिए वे चहकते हैं।

प्रेमाभिव्यक्ति में ही कोयल अपनी मधुर कूक से प्रकृति में मिठास घोल देती है, जो सभी को सुनने में अच्छी लगती है। चातक प्रेमवश ही बारिश की प्रतीक्षा करता है। और मात्र स्वाति नक्षत्र का जल ग्रहण करता है। 

मनुष्य भी अपने इस प्रेम की अभिव्यक्ति भाँति-भाँति से करता है। कभी उसका प्रेम आसक्ति बन जाता है, तो कभी भक्ति में परिवर्तित हो जाता है. कभी प्रेम के स्वर उसकी प्रार्थना में फूटते हैं, तो कभी कविता या गीतों के माध्यम से वह अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करता है। मनुष्य प्रेमवश ही परिवार व समाज से बँधा रहता है और प्रेमवश ही वह प्रकृति से ऊपर उठकर परमेश्वर की प्राप्ति के लिए यत्न करता है।

इस दुनिया में रहते हुए मनुष्य को यह अनुभव होता रहता है कि सबकी दृष्टि में, सबके मध्य रहने के बावजूद कहीं-न-कहीं वह अकेला है। वह दूसरों से जुड़ने का प्रयत्न करता है, परिवार व समाज उसकी इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। 

व्यक्ति इनसे कुछ लेता है और इनको कुछ देना अपना कर्तव्य समझता है। यहाँ पर उसका विकास कई स्तरों पर एक साथ होता है। यद्यपि मानव प्रकृति का ही एक हिस्सा है, फिर भी वह प्रकृति से ऊपर उठने के लिए खुद को अभिव्यक्त करने के लिए नए-नए आयाम रचता है।

कोई भी रचनात्मक कार्य करते समय व्यक्ति उससे तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उसी के द्वारा वह बाहर की दुनिया से जुड़ता है। वह दूसरों से जुड़ना चाहता है, उन्हें कुछ देना चाहता है और बदले में कुछ पाना भी चाहता है और यह सब सिर्फ प्रेम के जरिए ही संभव है। प्रेम के बिना मनुष्य एक दिन भी आनंद से नहीं रह सकता।


 

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