प्रातः देखा गया कि धोखे में गोवध हो गया है। गुरु ने शाप दिया कि इस कर्म से वे चाण्डाल हो जायँ । शप्त होने पर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वे भगवान के भजन में लीन हो गये। कुरूष से उत्तराखंड के राजाओं का वंश चला और धृष्ट की सन्तति अपने तपोबल से ब्रह्म तत्व को प्राप्त हुई। नृग के वंश में सुमति, भूत, ज्योति, वसु आदि हुए।
नरिष्यन्त की सन्तति-परम्परा में स्वयं अग्नि देव अग्निवेश्य के रूप में अवतीर्ण हुए। नभग के पुत्र नाभाग के परम भक्त राजर्षि अम्बरीष का जन्म हुआ। दिष्ट के पुत्र का नाम भी नाभाग था। उनके वंश में आगे चलकर चक्रवर्ती महाराज मरुत्त हुए, जिनके महायज्ञ में सहस्र विप्र अखण्ड घृतधारा सहस्र वर्षों तक देते रहे ।
उनके यज्ञ में समस्त उपकरण मंडप आदि स्वर्ण के थे । इस महान् यज्ञ में इन्द्र को सोमसे और अग्नि को आज्या (घी) से अजीर्ण हो गया। शर्याति की पुत्री सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हुआ।
मनु के उपर्युक्त दस पुत्रों में इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे। मनु ने अपना राज्य और भगवान सूर्य से प्राप्त ब्रह्मविद्या का उपदेश भी इक्ष्वाकु को दिया । इक्ष्वाकु ने स्वयं मध्य प्रदेश का राज्य स्वीकार किया और शेष राज्य भाइयों में बांट दिया। उनकी राजधानी अयोध्या थी । इनके सौ पुत्र हुए।
सूर्यवंशीय क्षत्रियों का इन्हीं से विस्तार हुआ। इनके मुख्य पुत्रों में विकुक्षि और निमि के नाम आते हैं। विकुक्षि का नाम ही आगे शशाद पड़ा। इनकी सन्तति ही अयोध्या की राजगद्दी पर रही।
महाराज रघु के पश्चात इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। निमि मिथिला नरेश हुए। महर्षि वशिष्ठ के श्राप से शरीर छोड़कर उन्होंने मनुष्यों के पलकों पर वास पाया। इनके शरीर-मन्थन से विदेह की उत्पत्ति हुई।
महाराज इक्ष्वाकु के वंशज में अयोध्या की परम्परा में ककुत्स्थ, चक्रवर्ती महाराज मान्धाता आदि अत्यंत प्रसिद्ध नरेश हुए। निमिके सन्तानों में सभी आत्मविद्या के ज्ञाता नरेश हुए।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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