गर्भस्थ शिशु ने देखा कि एक प्रचण्ड तेज, समुद्र की भाँति उमड़ता हुआ उसे भस्म करने आ रहा है। इसी समय बालक ने अंगूठे के बराबर ज्योतिर्मय भगवान को अपने पास देखा। भगवान अपने कमलनेत्रों से बालक को स्नेहपूर्वक देख रहे थे। उनके सुन्दर श्याम वर्ण पर पीताम्बर की अद्भुत शोभा थी।
मुकुट, कुण्डल, अंगद, किंकिणी प्रभृति मणिमय आभरण उन्होंने धारण कर रखे थे। उनके चार भुजाएँ थीं और उनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म थे। अपनी गदा को उल्का के समान चारों ओर शीघ्रता से घुमा कर भगवान उस उमड़ते आते अस्त्र- तेज को बराबर नष्ट करते जा रहे थे।
बालक दस महीने तक भगवान को देखता रहा। वह सोचता ही रहा- 'ये कौन हैं?' जन्म का समय आने पर भगवान वहाँ से अदृश्य हो गये। बालक मृत-सा उत्पन्न हुआ; क्योंकि जन्म के समय उस पर ब्रह्मास्त्र का प्रभाव पड़ गया था। तुरंत श्रीकृष्णचन्द्र प्रसूतिका गृह में आये और उन्होंने उस शिशु को जीवित कर दिया। यही बालक परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जब परीक्षित् बड़े हुए, पांडवों ने उन्हें राज्य सौंप दिया और स्वयं हिमालय पर चले गये। प्रतापी एवं धर्मात्मा परीक्षित ने राज्य में पूरी सुव्यवस्था स्थापित की। एक दिन जब ये दिग्विजय करने निकले थे, इन्होंने एक उज्ज्वल साँड़ देखा, जिसके तीन पैर टूट गये थे। केवल एक ही पैर शेष था। पास ही एक गाय रोती हुई उदास खड़ी थी। एक काले रंग का शूद्र राजाओं की भाँति मुकुट पहने, हाथ में डण्डा लिये गाय और बैल को पीट रहा था।
यह जानने पर कि गौ पृथ्वी देवी हैं और वृषभ साक्षात् धर्म है तथा यह कलयुग शूद्र बनकर उन्हें ताड़ना दे रहा है- परीक्षित ने उस शूद्र को मारने के लिये तलवार खींच ली शूद्र ने अपना मुकुट उतार दिया और वह परीक्षित के पैरों पर गिर पड़ा। महाराज ने कहा- 'कि! तुम मेरे राज्य में मत रहो। तुम जहाँ रहते हो, वहाँ असत्य, दम्भ, छल-कपट आदि अधर्म रहते हैं।'
कलिने प्रार्थना की आप तो चक्रवर्ती सम्राट् हैं; अतः मैं कहाँ रहूँ, यह आप ही मुझे बता दें। मैं कभी आपकी आज्ञा नहीं तोड़ेगा।' परीक्षित ने कलि को रहने के लिये जुआ, शराब, स्त्री, हिंसा रूप स्थान बताये। ये कलि के निवास हैं। इनसे प्रत्येक कल्याणकामी को बचना चाहिए। कलिने पुनः कहा- राजन्! आपने मुझे जो स्थान दिया, वे सब निकृष्ट कोटि के हैं, अतः मुझे कोई अच्छा स्थान भी दीजिये। इस पर राजा ने उसे सुवर्ण में रहने के लिये कहा।
एक दिन आखेट करते हुए परीक्षित् वन में भटक गये। भूख और प्यास से व्याकुल वे एक ऋषि के आश्रम में पहुँचे। ऋषि उस समय ध्यानस्थ थे। राजा ने उनसे जल माँगा, पुकारा; ऋषि को कुछ पता नहीं लगा। इसी समय कलि ने राजा पर अपना प्रभाव बनाया। उन्हें लगा कि जान-बूझकर ये मुनि मेरा अपमान करते हैं। पास में ही एक मरा सर्प पड़ा था।
उन्होंने उसे धनुष से उठाकर ऋषि के गले में डाला- यह परीक्षा करने के लिये कि ऋषि ध्यानस्थ हैं या नहीं, और फिर वे राजधानी लौट गये। बालकों के साथ खेलते हुए उन ऋषि के तेजस्वी पुत्र ने जब यह समाचार पाया, तब शाप दे दिया- 'इस दुष्ट राजा को आज के सातवें दिन तक्षक काट लेगा।'
उस समय वे भीमसेन द्वारा विजित मगधराज जरासंध का स्वर्ण-मुकुट सिर पर धारण किये थे। उसमें कलिका वास हो गया था, इसलिए उनसे यह अकरणीय कृत्य हो गया था। घर पहुँच कर मुकुट उतारने पर परीक्षित्को स्मरण आया कि 'मुझसे आज बहुत बड़ा अपराध हो गया।' वे पश्चात्ताप कर ही रहे थे, इतने में शाप की बात का उन्हें पता लगा।
इससे राजा को तनिक भी दुख नहीं हुआ। अपने पुत्र जनमेजय को राज्य देकर वे गंगातट पर जा बैठे। सात दिनों तक उन्होंने निर्जला व्रत का निश्चय किया। उसके पास उस समय बहुत-से ऋषि-मुनि आये। परीक्षित ने कहा–'ऋषिगण ! मुझे शाप मिला, यह तो मुझ पर भगवान की कृपा ही हुई। मैं विषय भोगों में आसक्त हो रहा था, दयामय भगवान ने शाप के बहाने मुझे उनसे अलग कर दिया।
अब आप मुझे भगवान का पावन चरित्र सुनाइए।' उसी समय वहां घूमते हुए श्री शुकदेव जी पहुँच गये। परीक्षित ने उनका पूजन किया। उनके पूछने पर शुकदेवजी ने सात दिनों में उन्हें पूरे श्रीमद्भागवत का उपदेश किया।
अन्त में परीक्षित ने अपना चित्त भगवान में लगा दिया। तक्षक ने आकर उन्हें काटा और उसके विष से उनकी देह भस्म हो गयी; पर वे तो पहले ही शरीर से ऊपर उठ चुके थे। उनको इस सबका पता तक नहीं चला।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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