Published By:दिनेश मालवीय

महर्षि मुद्गल ने स्वर्ग से उन्हें लेने आये देवदूतों को वापस कर दिया, स्वर्ग में हैं अनेक कमियाँ और दोष, स्वर्ग और नरक से ऊपर भी एक परमलोक है..दिनेश मालवीय

भारत बहुत अनूठा देश है. इसकी धर्मदृष्टि और अध्यात्म की समझ इतनी गहरी है, कि इसकी थाह पाना बहुत कठिन है. भारत के सनातन, बौद्ध और जैन धर्म को छोड़कर संसार के सारे धर्मों में स्वर्ग, जन्नत, हेवन, पैराडाइज, बहिश्त आदि को मनुष्य के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य और अंतिम उपलब्धि माना गया है. भारत के धर्मों में भी स्वर्ग की अवधारणा तो है, लेकिन स्वर्ग को जीवन का परम लक्ष्य नहीं माना गया है. यहाँ मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य है, जिसके सामने स्वर्ग कुछ भी नहीं है. मोक्ष के लिए ज्ञानीजन स्वर्ग की अवहेलना कर देते हैं.

हम आपको एक ऐसे ऋषि के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अपने द्वारा अर्जित पुण्यों के फलस्वरूप उन्हें स्वर्ग के लिए लेने आये देवदूतों को वापस कर दिया. संसार के सेमेटिक धर्मों में तो कोई इसकी कल्पना तक नहीं कर सकता. इस महान ऋषि का नाम मुद्गल था. वह धर्म और सत्य के पूरी तरह समर्पित थे.  कुरुक्षेत्र में रहने वाले यह ऋषि जितेन्द्रिय थे और खेत काटने पर वहां बिखरे हुए अन्न के दाने बीनकर उनका सेवन करके ही अपना और अपने परिवार का जीवनयापन करते थे. वह हमेशा सत्य बोलते थे और भूलकर भी किसीकी निंदा नहीं करते थे. वह माह के दोनों पक्षों में दर्श और पौर्णमास यज्ञ करते हुए देवताओं और अतिथियों को उनका भाग अर्पित कर बचा हुआ अन्न ग्रहण करते थे. इस प्रकार माह में वे दो बार ही भोजन करते थे.

एक बार ऋषि दुर्वासा उनकी परीक्षा लेने बहुत कड़वे वचन बोलते हुए आश्रम में आये. उन्होंने भोजन की इच्छा व्यक्त की. ऋषि ने उन्हें बहुत प्रेम और सम्मान से भोजन अर्पित किया. दुर्वासा उनकी सारी रसोई खा गये. बचा हुआ भोजन अपने शरीर से लपेटकर वह चल दिए. इस प्रकार मुद्गलजी और उनका परिवार भूखे ही रह गये. दूसरा पर्वकाल आने पर दुर्वासाजी ने वैसा ही किया. मुद्गलजी परिवार सहित फिर भूखे  रह गये. दुर्वासाजी ने लगातार छह बार ऐसा किया.  लेकिन मुद्गलजी के मन में कोई विकार नहीं आया. इसके विपरीत उनका अंत:करण और अधिक शुद्ध हो गया.  

मुद्गलजी के  इस निर्मल व्यवहार से प्रसन्न होकर दुर्वासाजी ने कहा, कि भूख बड़े-बड़े ज्ञानियों को विचलित कर देती है. आपने अपने मन को विकार रहित रखा, जो संसार में बहुत दुर्लभ है. आपने अपने शुभ कर्मों से परमपद को प्राप्त कर लिया है. स्वर्ग के देवताओं ने भी इस बात की घोषणा की है. आप निश्चय ही स्वर्ग जाओगे. इतने में ही एक देवदूत विमान के साथ मुद्गल ऋषि के पास आ पहुँचा. देवदूत ने कहा, कि यह विमान आपको शुभ कर्मों से प्राप्त हुआ है. इस पर बैठिये. आप परम सिद्धि  प्राप्त कर चुके हैं.  मुद्गलजी ने कहा, कि देवदूत! मैं तुम्हारे स्वर्गवासियों के गुण सुनना चाहता हूँ.  स्वर्ग में क्या सुख हैं और वहाँ क्या दोष हैं.

देवदूत ने मुद्गलजी से कहा, कि स्वर्गलोक यहाँ से बहुत ऊपर है. वहाँ के लोग सदा विमानों पर विचरण करते हैं. सिर्फ धर्मात्मा और मन को वश  करने वाले ही वहाँ जा सकते हैं.  वहाँ देवता, विश्वेदेव, महर्षिगण, याम, धाम, गंधर्ब तथा अप्सरा आदि  देवसमूहों के अलग-अलग प्रकाशमान लोक हैं. मेरुगिरी नाम के पर्वत पर देवताओं के नंदन आदि पवित्र उद्यान हैं. वहाँ किसीको भूख-प्यास नहीं लगती. मन में कभी ग्लानि नहीं होती. गरमी और जाड़े का कष्ट नहीं होता और किसीको कोई भय नहीं होता. हमेशा दिव्य सुगंध फैली रहती है और संगीत के मधुर स्वर गूंजते रहते हैं. सबके शरीर दिव्य आभा से चमकते हैं. वहाँ मृत्यु तो होती ही नहीं है. देवदूत ने स्वर्ग की और भी बातों के बारे में विस्तार से बताया.

मुद्गलजी ने कहा,कि स्वर्ग में क्या कोई दोष नहीं है? देवदूत ने कहा, कि स्वर्ग में सबसे बड़ा  दोष यही है, कि जीवात्मा अपने सुखों का फल भोग समाप्त होने के बाद वहाँ से नीचे फिर धरती पर आ जाता है. वहाँ कोई नया कर्म करने की स्वतंत्रता नहीं है.  इतने सुख पाने के बाद फिर अचानक पतन बहुत दुखदायी होता है.  लेकिन एक अच्छी बात यह है, कि पतन के बाद जीव सिर्फ मनुष्य योनि में ही जन्म लेता है.

मुद्गलजी ने पूछा, कि क्या इन दोनों लोकों से भी अन्य कि धाम है. देवदूत ने कहा, कि ब्रह्माजी से ऊपर भगवान् विष्णु का परम धाम है. वह शुद्ध सनातन ज्योतिर्मय लोक है. उसे परब्रह्म भी कहते हैं. इस  पर मुद्गलजी ने कहा,कि हे देवदूत! अब आप जाइए. मैं आपके साथ स्वर्गलोक जाना नहीं चाहता, क्योंकि वहाँ कर्मफल भोग के बाद पतन हो जाता है. मैं उस परमलोक में जाना चाहता हूँ, जहाँ जाकर मनुष्य को कभी शोक नहीं  होता.  

इसके बाद मुद्गलजी पहले की तरह जीते  हुए ईश्वर की तपस्या करने लगे. उनकी दृष्टि में सोना और पत्थर तथा निंदा और स्तुति समान हो गये. उन्हें विशुद्ध ज्ञान होने लगा.  इस प्रकार उन्होंने सनातन मोक्षरूप परम सिद्धि प्राप्त कर ली. केवल सनातन धर्म में ही परमधाम या मोक्ष की बात कही गयी है. इसमें स्वर्ग और नरक से ऊपर एक ऐसा लोग बताया गया है, जिसमें जाकर मनुष्य कभी दुःख,शोक और क्लेश को प्राप्त नहीं होता और परम तत्व में विलीन होकर सदा रहने वाले आनंद में मग्न रहता है. इससे हमें यह शिक्षा मिलती है, कि हमें अपने सभी कर्म कामनारहित होकर ईश्वर को समर्पित होकर करना चाहिए. यही कल्याण का मार्ग है.  

 

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