आज महर्षि वाल्मीकि की जयंती है. वह संसार के पहले कवि हैं. इसीलिए उन्हें आदि कवि कहा जाता है. भारत की संस्कृति में ज्ञान को सर्वोपरि माना गया है. वाल्मीकि एक निचले कुल में पैदा हुए और उन्होंने अपने तपोबल से कवियों में सर्वश्रेष्ठ तथा ऋषियों में बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त किया. उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को संसार के सामने प्रकाशित किया. उनकी रची रामायण संस्कृत साहित्य में बहुमूल्य महाकाव्य है. एक बहुत करुण अवसर पर उनके मुंह से अनायास ही संस्कृत का पहला छंद निकला, जिसे श्लोक छंद कहते हैं. उन्होंने इसीमें रामायण की रचना की.
हम लोग श्लोक नाम से बहुत परिचित हैं और रोज़मर्रा के जीवन में श्लोकों का पाठ भी करते हैं. इसकी उत्पत्ति कैसे हुयी इसके बारे में लोग कम ही जानते हैं. यह संस्कृत का पहला श्लोक है. इसकी उत्पत्ति की कहानी बहुत रोचक है. एक बार महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज के साथ ब्रह्म मुहूर्त में तमसा नदी के तट पर स्नान करने के लिए गये. स्नान से पहले वह आसपास के सघन वनों की सुषमा को देखते हुए विचारने लगे. उन्होंने पास ही एक वृक्ष पर क्रोंच पक्षी के एक जोड़े को प्रणय में मग्न देखा. इतने में ही एक बहेलिये ने वाण चलाकर नर क्रोंच को मार दिया. पक्षी घायल होकर वृक्ष से नीचे गिर पड़ा. अपने प्रेमी को मरता हुआ देख क्रोंची करना से चीत्कार कर उठी. उस पक्षी की दुर्दशा देखकर महर्षि वाल्मीकि का मन करुणा से भर उठा. उन्होंने रोती हुयी क्रोंची को देखकर बहेलिये को श्राप दिया-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।
(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५)
{निषाद, त्वम् शाश्वतीः समाः प्रतिष्ठां मा अगमः, यत् (त्वम्) क्रौंच-मिथुनात् एकम् काम-मोहितम् अवधीः ।}
हे निषाद, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है ।
करुणामयी ऋषि ने बहेलिये को श्राप तो दे दिया, लेकिन उनके मन में इसके लिया पश्चाताप हुआ. उन्होंने अपने शिष्य भारद्वाज से कहा कि पीड़ित हुए मेरे मुख से जो वाक्य निकला है, वह चार चरणों में आबद्ध है. इसके हर एक चरण में आठ-आठ अक्षर हैं. इसे वीणा कि लय पर गाया भी जा सकता है. मैं इसे श्लोक का नाम देता हूँ. आश्रम लौटकर वाल्मीकि ध्यानमग्न हो गये. इसके बाद श्रृष्टि के निर्माता ब्रहमाजी उनसे भेंट करने आये. वाल्मीकि ने क्रोंच वाली घटना और अपने मुख से निकले वाक्य के विषय में उन्हें बताया. उनके मन का पश्चाताप उनकी बातों में झलक रहा था. ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि तुम्हारे मुख से निकला यह छंदोबद्ध वाक्य श्लोकरूप ही होगा. तुम इसमें श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र का काव्य वर्णन करो. इस काव्य में अंकित तुम्हारी कोई भी बात झूठी नहीं होगी. पृथ्वी पर जब तक नदियाँ और पर्वत रहेंगे, तब तक संसार में रामायण का प्रचार होता रहेगा. इस प्रकार संस्कृत के पहले छंद “श्लोक” की उत्पत्ति और प्रयोग हुआ. यह बहुत अद्भुत छंद है. इसमें 24 मात्राएँ होती हैं. 14, १० पर यति तथा आदि और अंत में वाचिक भार 21 होता है.
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