Published By:धर्म पुराण डेस्क

महर्षि वेदव्यास

महर्षि वेदव्यास भगवान नारायण के अवतार हैं- वे अजर-अमर हैं तथा सभी आधि-व्याधित मुक्त हैं। 

महर्षि वेदव्यास सात चिरंजीवियों में से एक हैं। सभी प्रकार की आधि-व्याधियां तथा रोग-दोषों से मुक्ति के लिए और दीर्घायु एवं आरोग्य की प्राप्ति के लिए भगवान वेदव्यास जी का नित्य प्रातः स्मरण करना चाहिए।

महर्षि वेदव्यास वशिष्ठ जी के प्रपौत्र, शक्ति ऋषि के पौत्र, पाराशर जी के पुत्र तथा महाभागवत शुकदेव जी के पिता हैं। यमुना के द्वीप में उनका प्राकट्य हुआ, अतः वे द्वैपायन, कृष्ण वर्ण के थे, अतः कृष्ण द्वैपायन और वेद संहिता का उन्होंने विभाजन किया, अतः व्यास (वेदव्यास) कहलाते हैं। 

वे प्रकट होते ही युवा हो गए और वेदों का उच्चारण करने लगे। भगवान वेदव्यास की कृपा से ही हमें ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि इस रूप में प्राप्त हुए। अठारह पुराण तथा उपपुराण हमें उनके अनुग्रह से ही प्राप्त हुए हैं। महाभारत, ब्रह्मसूत्र (वेदान्त दर्शन), तथा योगदर्शन (व्यासभाष्य) आदि सब वेदव्यास जी के द्वारा ही हमें प्राप्त हुए हैं। 

आज के विश्व का सारा ज्ञान-विज्ञान तथा संपूर्ण आरोग्य शास्त्र महर्षि वेदव्यास जी का आभारी है। अपने अध्यात्म, तपोबल, ज्ञान-विज्ञान एवं आरोग्य दान के माध्यम से उन्होंने प्राणी जगत की जो सेवा की, जो उपकार किया, वह चिरस्मरणीय है। 

वेद संहिताओं में जो आरोग्य के मूल बीज सन्निहित थे, उन्हें उन्होंने सबके कल्याण के लिए पुराणों में विस्तृत रूप से प्रकाशित कर दिया। उन्होंने वेदांत दर्शन (ब्रह्मसूत्र), श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में जहां अध्यात्म-चिकित्सा और भवरोग से मुक्ति के उपायों का निदर्शन किया है, वहीं कई पुराणों- गरुड़ पुराण, अग्नि पुराण, ब्रह्मवैवर्त तथा बृहद्धर्मपुराण आदि में युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा के अवलंबन से पथ्यापथ्य-विचारपूर्वक औषध सेवन तथा संयम-नियम के अनुपालन द्वारा सदा निरोग रहने की जीवन पद्धति भी निर्दिष्ट की है।

महर्षि वेदव्यास ने शरीर में स्थित कुपित दोष को सभी रोगों का मूल कारण माना है और दोष के प्रकुपित होने का कारण अनेक प्रकार के अहितकर पदार्थों का सेवन भी बताया है। उन्होंने चार प्रकार के रोग बताए हैं- 1. शरीर 2. मानस 3. आगन्तुक 4. सहज। ज्वर, कुष्ठ आदि शरीर रोग हैं, क्रोध आदि मानस रोग है, चोट आदि से उत्पन्न रोग आगन्तुक हैं और भूख-बुढ़ापा आदि सहज रोग हैं।

गरुड़, अग्नि आदि पुराणों में वेदव्यास जी ने समग्र अष्टांग आयुर्वेद का वर्णन किया है। उन्होंने रोगों के निदान, उपचार, औषधियों तथा सिद्ध योगों के वर्णन के साथ ही रसायन शास्त्र, ऋतुचर्या, दिनचर्या, पथ्यापथ्य, संयम-नियम, ग्रहदोष, अगदतंत्र, बालग्रहदोष, स्त्री चिकित्सा तथा मृत्युंजय योग आदि बताए हैं। अश्वायुर्वेद, गजायुर्वेद, गवायुर्वेद तथा वृक्षायुर्वेद का भी वर्णन किया है।

व्यास जी के अनुसार सामान्यतः औषधियों के निर्माण की पांच विधियां होती हैं, यथा रस, कल्क, क्वाथ, शीतकषाय तथा फाण्ट औषधियों को निचोड़ने से रस होता है, मंचन से कल्क बनता है, औटाने से क्वाथ होता है, रात्रि भर रखने से शीतकषाय तथा जल में कुछ गरम करके छान लेने से फाण्ट होता है।

यह तो सामान्यतः स्थावर औषधियों द्वारा आरोग्य प्राप्ति की बात हुई, वेदव्यास जी यह भी बताते हैं कि मंत्रों के जप, देवाराधना आदि द्वारा भी प्रारब्ध जन्य रोगों की चिकित्सा होती है। उन्होंने मंत्रों को आयु और आरोग्य का कर्ता बताया है।

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