सभी देशों और समय के संत-महात्माओं के उपदेश इसीका समर्थन करते हैं। महात्मा गांधी की विशेष बात यह रही कि वे भारतवर्ष की राजनीतिक स्वाधीनता के लिये लड़े। उनकी लोकप्रियता और दिग्दिगन्त में उनकी कीर्तिका यही कारण है। पर उन्होंने अपने आत्मचरित के उपसंहार में यह बताया है कि सत्य और अहिंसा ही वह मान है, जिससे मैं अपनी सफलता को मापा करता हूँ। सत्य का जो निरूपण उन्होंने किया, वह निश्चय ही भारत की प्राचीन आध्यात्मिक संस्कृति के अनुरूप था। पर उनका सत्य निरा ऐहिक हितवाद मूलक नहीं था। उसका मूल था आध्यात्मिक परम सत्य। उनका सत्य था राम और राम था उनका सत्य। रामराज्यमें जो न्याय, समत्व आदि दैवी गुण जनतामें प्रतिष्ठित थे, उन्हींसे मुग्ध होकर महात्मा गांधी अपनी भावनाके आदर्श राज्यको रामराज्य कहा करते थे। आधुनिक राजनीतिके कायल लोग भी न्याय, समता आदि गुणोंकी प्रशंसा किया करते हैं। पर उनका दृष्टिकोण ‘अध्यात्मरहित, धर्मनिरपेक्ष' हुआ करता है। महात्मा गांधीका दृष्टिकोण आध्यात्मिक था। जो कुछ वे करते थे, सब परम सत्य श्रीरामको अर्पण करते थे। रामके लिये वे जीते थे और उनके अन्तिम शब्द भी 'हे राम! हे राम!' थे। उनका समाजवाद आध्यात्मिक था। समाजवाद और निष्क्रिय प्रतिरोध जगत में उनसे पहले किसी-न-किसी रूप में वर्तमान थे। पर उन पर
महात्मा गांधी ने आध्यात्मिकता की छाप लगा दी, उन्हें भारतीय बना लिया।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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