Published By:धर्म पुराण डेस्क

मत्स्यावतार की कथा

(1) ब्रह्माजी के सोने का जब समय आ गया और उन्हें नींद आने लगी, उस समय वेद उनके मुख से निकल पड़े और उनके पास ही रहने वाले हयग्रीव नामक दैत्य ने उन्हें चुरा लिया। ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय होने से सारे लोक समुद्र में डूब गये। श्रीहरि ने हयग्रीव की चेष्टा जान ली और वेदों का उद्धार करने के लिये मत्स्यावतार ग्रहण किया। द्रविड़ देश के राजर्षि सत्यव्रत बड़े भगवत्परायण थे। वे मलय पर्वत के एक शिखर पर केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे। ये ही वर्तमान महाकल्प में वैवस्वत मनु हुए। 

एक दिन कृतमाला नदी में तर्पण करते समय उनकी अंजलि में एक छोटी-सी मछली आ गयी. उन्होंने उसे जल के साथ फिर नदी में छोड़ दिया। उसने बड़ी प्रार्थना की कि मुझे जलजन्तु खा लेंगे, मेरी रक्षा कीजिये। राजा ने उसे जलपात्र में डाल लिया। वह इतनी बढ़ी कि कमण्डलु में स्थान न रहा, तब राजा ने उसे एक बड़े मटके में रख दिया। दो घड़ी में वह तीन हाथ की हो गयी तब उसे एक बड़े सरोवर में रख दिया। थोड़ी ही देर में उसने महामत्स्य का आकार धारण किया। जिस किसी जलाशय में रखते, उसी से वह बड़ी हो जाती। 

तब राजा ने उसे समुद्र में छोड़ दिया, उसने बड़ी करुणा से कहा- राजन्! आप मुझको इसमें न छोड़ें मेरी रक्षा करें। तब उन्होंने प्रश्न किया 'मत्स्यरूप धारण करके मुझको मोहित करने वाले आप कौन हैं? आपने एक ही दिन में 400 कोस के विस्तार का सरोवर घेर लिया। आप अवश्य ही सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है ?' 

तब भगवान ने कहा आज से सातवें दिन तीनों लोक प्रलय कालीन समुद्र में डूब जायेंगे। तब मेरी प्रेरणा से एक बड़ी भारी नाव तुम्हारे पास आयेगी। उस समय तुम समस्त प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को लेकर सप्तर्षियों के समेत उस पर चढ़ जाना और समस्त औषधियों और बीजों को साथ रख लेना। जब तक ब्रह्मा की रात्रि रहेगी, तब तक मैं तुम्हारी नौका को लिये समुद्र में विहार करूंगा और तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दूंगा। यह कहकर मत्स्य भगवान अंतर्धान हो गये।

प्रलयकाल में वैसा ही हुआ, जैसा भगवान ने कहा था मत्स्य भगवान प्रकट हुए। उनका शरीर सोने के समान देदीप्यमान था और शरीर का विस्तार चार लाख कोस का था। शरीर में एक बड़ा भारी सींग भी था। वह नाव वासुकी नाग से सींग में बांध दी गयी। सत्यव्रतजी ने भगवान्‌ की स्तुति की। भगवान्ने प्रसन्न होकर उन्हें अपने स्वरूप का सम्पूर्ण परम रहस्य और ब्रह्म-तत्त्व का उपदेश दिया, जो मत्स्यपुराण में है। ब्रह्मा की नींद टूटने पर भगवान ने हयग्रीव को मारकर श्रुतियाँ ब्रह्माजी को लौटा दी। (श्रीमद्भागवत) 

(2) समुद्र का एक पुत्र शंख था। इसने देवताओं को परास्त करके उनको स्वर्ग से निकाल दिया, सब लोकपालों के अधिकार छीन लिये। देवता मेरुगिरि की कन्दराओं में जा छिपे, शत्रु के अधीन न हुए। तब दैत्य ने सोचा कि देवता वेद मंत्रों के बल से प्रबल प्रतीत होते हैं। अतः मैं वेदों का अपहरण करूँगा। ऐसा निश्चय करके वह वेदों को हर लाया । 

ब्रह्माजी कार्तिक की प्रबोधिनी एकादशी को भगवान की शरण गये। भगवान ने आश्वासन दिया और मछली के समान रूप धारण करके आकाश से वे विन्ध्य पर्वत निवासी कश्यप मुनि की अंजलि में गिरे। मुनि ने करुणावश उसे क्रमशः कमण्डलु, कूप, सर, सरिता आदि अनेक स्थानों में रखते हुए, अन्त में उसे समुद्र में डाल दिया। वहाँ भी वह बढ़कर विशालकाय हो गया । 

तदनन्तर उन मत्स्य रूप धारी भगवान ने शंखासुर का वध किया और विष्णु रूप में उसे हाथ में लिये वे बदरीवन में गये। वहाँ सम्पूर्ण ऋषियों को बुलाकर आदेश दिया कि 'जल के भीतर बिखरे हुए वेदों की खोज करो और रहस्य सहित उनका पता लगाकर शीघ्र ही ले आओ।' तब तेज और बल से सम्पन्न समस्त मुनियोंने यज्ञ और बीज सहित वेद मंत्रों का उद्धार किया। जिस वेद के जितने मन्त्रों को जिस ऋषि ने उपलब्ध किया, वही उतने भाग का तब से ऋषि माना जाने लगा। ब्रह्मा समेत सब ऋषियों ने आकर प्राप्त किये हुए वेदों को भगवान को अर्पण कर दिया। (पद्मपुराण)

(3) दिति के मकर, हयग्रीव, महाबलशाली हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु जम्भ और मय आदि पुत्र हुए, मकर ने ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्मा जी को मोहित करके उनसे सम्पूर्ण वेद ले लिये। इस प्रकार श्रुतियों का अपहरण करके वह महासागर में घुस गया। फिर तो सारा संसार धर्म शून्य हो गया। ब्रह्माजी की प्रार्थना से भगवान मत्स्य रूप धारण करके महासागर में प्रविष्ट हुए और मकर दैत्य को थूथुन के अग्रभाग से विदीर्ण करके उन्हें मार डाला और अंग-उपांगों सहित सम्पूर्ण वेदों को लेकर ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। (पद्मपुराण)


 

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