'धर्म' शब्द उन संस्कृत शब्दों में है जिनका प्रयोग कई अर्थों में होता आया है। यह शब्द अनेक परिवर्तनों एवं विपर्ययों के चक्र में घूम चुका है। ऋग्वेद की ऋचाओं में यह शब्द या तो विशेषण के रूप में या संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हुआ है ('धर्मन्' के रूप में तथा सामान्यतः नपुंसक लिंग में)। इस शब्द का इस रूप में प्रयोग छप्पन बार हुआ है।
वेद की भाषा में उन दिनों इस शब्द का वास्तविक अर्थ क्या था; यह कहना अशक्य है। स्पष्टतः यह शब्द 'घृ' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना। ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में, तथा 'धर्म' शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त हुआ है '
किन्तु अन्य स्थानों में यह या तो नपुंसक लिंग में है या उस रूप में, जिसे हम पुल्लिंग एवं नपुंसक दोनों समझ सकते हैं। अधिक स्थानों पर 'धर्म', 'धार्मिक विधियों' या 'धामिक क्रिया-संस्कारों के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है|
यथा ऋग्वेद आदि स्थानों पर। ऋग्वेद 'तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्' ऋचा उपर्युक्त कथन को प्रमाणित करती है। इसी प्रकार 'प्रथमा धर्मा:' तथा 'सनता धर्माणि' का अर्थ क्रमशः 'प्रथम विधियाँ' तथा 'प्राचीन विधियाँ' है। कहीं-कहीं यह अर्थ नहीं भी प्रकट होता, "जहां पर 'धर्म' का अर्थ 'निश्चित नियम' (व्यवस्था या सिद्धांत), या 'आचरण-नियम' है।
'धर्म' शब्द के उपयुक्त अर्थ वाजसनेयी संहिता में भी मिलते हैं, एक स्थान पर हमें 'ध्रुवेण धर्मणा' का प्रयोग भी मिलता है। वहीं हमें 'धर्मः' (धर्म से) शब्द का बहुल प्रयोग भी मिलता है।'
ऋग्वेद के बहुत से मन्त्र अथर्ववेद में मिलते हैं, जिनमें 'धर्मन्' शब्द का प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद में 'धर्म' शब्द का प्रयोग "धार्मिक क्रिया संस्कार करने से अर्जित गुण" के अर्थ में हुआ है।' ऐतरेय ब्राह्मण में 'धर्म' शब्द सकल धार्मिक कर्तव्यों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
छान्दोग्योपनिषद् में धर्म का एक महत्त्वपूर्ण अयं मिलता है, जिसके अनुसार धर्म की तीन शाखाएँ मानी गयो हैं—
(1) यज्ञ, अध्ययन एवं दान, अर्थात् गृहस्थ धर्म,
(2) तपस्या अर्थात् तापस घर्म तथा,
(3) ब्रह्मचारित्व अर्थात् आचार्य के गृह में अन्त तक रहना।
"यहाँ 'धर्म' शब्द आश्रमों के कर्तव्यों की ओर संकेत कर रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि 'धर्म' शब्द का अर्थ समय-समय पर परिवर्तित होता रहा है। किन्तु अंत में यह मानव के विशेष अधिकारों, कर्तव्यों, बन्धनों का योतक, आर्य जाति के सदस्य की आचार विधि का परिचायक एवं वर्णाश्रम का द्योतक हो गया। तैत्तिरीयोपनिषद् में छात्रों के लिए जो 'धर्म' शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह इसी वर्ष में है, यथा "सत्यं वद", “धर्म चर"...आदि।
भगवद्गीता के 'स्वधर्मे नियनं श्रेयः' में मी 'धर्म' शब्द का यही अर्थ है। धर्म शास्त्र साहित्य में 'धर्म' शब्द इसी अथ में प्रयुक्त हुआ है। मनुस्मृति के अनुसार मुनियों ने मनु से सभी वर्गों के धर्मों की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की थी। यही अर्थ याज्ञवल्क्य स्मृति में भी पाया जाता है।
तन्त्रवार्तिक के अनुसार धर्म शास्त्रों का कार्य है वर्णों एवं आश्रमों के धर्मों को शिक्षा देना।" मनुस्मृति के व्याख्याता मेघातिथि के अनुसार स्मृतिकारों ने धर्म के पांच स्वरूप माने हैं-
(1) वर्णधर्म,
(2) आश्रमधर्म,
(3) वर्णाश्रम धर्म,
(4) नैमित्तिक धर्म (यथा प्रायश्चित्त) तथा,
(5) गुणधर्म (अभिषिक्त राजा के संरक्षण सम्बन्धी कर्तव्य)।
इस पुस्तक में 'धर्म' शब्द का यही अर्थ लिया जाएगा।
इस सम्बन्ध में 'धर्म की कतिपय मनोरम परिभाषाओं की ओर संकेत करना अपेक्षित है। पूर्व मीमांसा सूत्र में जैमिनी ने धर्म को वेदविहित प्रेरक' लक्षणों के अर्थ में स्वीकार किया है, अर्थात् वेदों में प्रयुक्त अनुशासनों के अनुसार चलना ही धर्म है। धर्म का सम्बन्ध उन क्रिया संस्कारों से है, जिससे आनंद मिलता है और जो वेदों द्वारा प्रेरित एवं प्रशंसित हैं।
"वैशेषिक चित्रकार ने धर्म की यह परिभाषा की है- धर्म वही है जिससे आनन्द एवं निःश्रेयम की सिद्धि हो।" इसी प्रकार कुछ एकांगी परिभाषाएँ भी हैं, यथा 'अहिंसा परमो धर्मः' 'आनृशंस्यं परो धर्मः', 'आचारः परमो धर्मः'।
हारीत ने धर्म को श्रुति प्रमाणक माना है। "बौद्ध धर्म-साहित्य में धर्म शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कभी-कभी इसे भगवान बुद्ध की सम्पूर्ण शिक्षा का द्योतक माना गया है। इसे अस्तित्व का एक तत्त्व अर्थात् जड़ तत्त्व, मन एवं शक्तियों का एक तत्त्व मी माना गया है।"
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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