Published By:धर्म पुराण डेस्क

मिले मन ….. भीतर भगवान

"नाम ग्रहे आवी मिले मन भीतर भगवान" परम पूज्य उपाध्याय जी भगवंत श्री मान विजयजी गणिवर की इस स्तवन पंक्ति ने आज तक अनेक आराधकों को बाहर से भीतर प्रवेश करने की प्रेरणा दी है, आत्मा के घर में आसन जमाने योग्य बनाया है और अन्तरतम में एक रूप किया है।

परमज्ञानज्योतिर्मय, परमसुखमय, परमआनन्दमय परमात्मा के दर्शन मिलन की तीव्र तड़पन का अनुभव करता भक्त सर्वत्र भगवान को खोजता है, परन्तु उनका दर्शन मिलन प्राप्त नहीं होने से वह अत्यंत हताश हो जाता है; फिर भी दर्शन-मिलन की तृषा अत्यन्त तीव्र होने से वह उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ करता रहता है।

एक दिन भाग्योदय से किसी अनुभव-योगी (सत्-साधु) से उसका समागम हुआ। उसने अपनी मनो-व्यथा उनके समक्ष व्यक्त की। प्रभु दर्शन की अपनी तीव्र लगन से उन्हें परिचित कराया और विनयपूर्वक प्रणाम करके, उनकी अनन्य शरण स्वीकार कर उसने उन्हें प्रभु-दर्शन का सच्चा उपाय पूछा।

गुरु ने अपना अनुभव सिद्ध मार्ग वात्सल्यमय वाणी में उसे कह सुनाया, "हे सौम्य? तू धन्य हे कि तुझे परमात्मा के दर्शन मिलन की तीव्र उत्कंठा हुई। तू कृत-पुण्य है। सचमुच, जन्म-जन्म के प्रकृष्ट पुण्य के बल से ही जीव को परमात्मा का स्वरूप जानने की इतनी तीव्र अभिलाषा होती है। तेरे साध्य को सिद्ध करने के जो ठोस उपाय मैंने शास्त्रों से ज्ञात किये हैं उन्हें तू सावधानी पूर्वक सुन।”

"जिन परमात्मा के दर्शन की तुझे तीव्र अभिलाषा है, वे परमात्मा पूर्ण ज्ञानमय, पूर्ण दर्शनमय और पूर्ण चारित्रमय (सुखमय) हैं। अतः उनका प्रत्यक्ष दर्शन-मिलन तो पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन और पूर्ण चरित्र की प्राप्ति से ही हो सकता है। इन तीनों को रत्नत्रयी कहते हैं। इनकी पूर्णता ही मोक्ष है। उनकी प्राप्ति का साधन मोक्ष मार्ग कहलाता है।

इस रत्नत्रयी की प्राप्ति सुदेव, सुगुरु और सुधर्म रूपी तत्व-त्रयी की सविधि, ससम्मान आराधना करने से ही हो सकती है। इसलिए इन तीनों तत्वों की विधिपूर्वक भक्ति करनी अत्यावश्यक है। श्री नमस्कार महामंत्र रूप 'पंच-मंगल' सूत्र द्वारा मुख्यतया देव तत्त्व एवं गुरु-तत्त्व की आराधना का तथा 'श्री करेमि भंते' सूत्र द्वारा धर्म-तत्व की आराधना करने का निर्देश है।

सर्वज्ञ-कथित और श्री गणधर भगवंत-रचित 'द्वादशांगी' इन दोनों संक्षिप्त सूत्रों का अर्थ-विस्तार है। श्री 'नवकार' और 'सामायिक' समग्र जिन-शासन के, मोक्ष-मार्ग के सार-भूत तत्त्व हैं, जिनमें पाँच परमेष्ठी, नव-पद आदि समस्त उत्तम तत्वों का अन्तर्भाव है।

पंच परमेष्ठी भगवंतों के प्रति परम प्रेम उत्पन्न करने के लिए, पत्नी को अपने प्राण-प्रिय पति के प्रति प्रेम होता है वैसा प्रेम प्रकट करना चाहिये, पुत्र को अपनी माता के प्रति जो पूज्य भाव होता है वैसा पूज्य-भाव श्री अरिहंत परमात्मा के प्रति जागृत करना चाहिये और सच्चे सेवक को अपने स्वामी की आज्ञा के प्रति जो सम्मान होता है वैसा सम्मान जागृत करना चाहिये। जिस प्रकार ये तीनों लौकिक प्रेम सम्बन्ध प्रीति, भक्ति एवं आज्ञापालन से प्रगाढ़ बनकर पारस्परिक एकता में परिवर्तित हो जाते हैं, उसी प्रकार से परमात्मा और सुगुरु के साथ भी प्रीति, भक्ति और आज्ञा-पालन के विकास से एकता का सम्बन्ध अनुभव किया जाता है।

योगशास्त्रों में प्रीति योग, भक्तियोग, वचन-योग और असंग-योग अथवा प्रीति अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान, वचन और असंग अनुष्ठान के माध्यम से परमात्मा एवं गुरु के साथ एकता (अभेद) सिद्ध करने के उपाय बताये हैं ।

धर्म जगत

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