Published By:धर्म पुराण डेस्क

कर्मकांड से बड़ा है मानसिक यज्ञ

अमृत वाणी से तात्पर्य स्वयं परमात्मा के श्रीमुख से निकले उपदेश और आदेश हैं, जिन्हें सुनकर मनुष्य अमर तत्व के पद को प्राप्त करता है. जीवन में सुख-शांति का अनुभव करता है. शास्त्रों और ऋषि- मुनियों के वचनों को बार-बार श्रवण करने से मनुष्य के हृदय में ज्ञान का नया स्रोत फूट पड़ता है.

• कर्मकाण्ड की क्रिया परमात्मा के नाम में मन लगाने के लिए की जाती है, लेकिन एक बार भक्ति मार्ग में रम जाने के बाद फिर किसी कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं रह जाती. सिर्फ मानसिक यज्ञ करना चाहिए. इससे साधक धीरे-धीरे अपनी अंतरात्मा में प्रवेश करने लग जाता है.

• इंद्रियों का दमन करो, विषयों से मुख मोड़ो-ऐसा कहने-सुनने में तो ठीक लगता है, लेकिन ऐसा सुनना श्मशान के वैराग्य की तरह है, जो क्षणिक होता है. हमें ऐसा ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जो शाश्वत हो, स्थायी हो. साधक का जो अनुराग है, उसे परमात्मा की ओर मोड़ देना चाहिए तभी वह भवसागर से पार हो सकता है.

यों तो साधारणतया संसार की विषय वासनाओं से मन छूटता नहीं, लेकिन सत्संग करने से मन परमात्मा की ओर उन्मुख होने लगता है. जिसको मान-अपमान का ध्यान रहता है उसे संसार से वैराग्य कभी हो ही नहीं सकता. 

संसार के वस्तुओं के प्रति आसक्ति, इच्छाएं मनुष्य को अंधा बना देती हैं. संसार में कितना भी धन कमा लो, फिर भी आनंद या सुख मिलने की कोई गारंटी नहीं, वहीं दूसरी ओर भगवान डंके की चोट पर कहते हैं- मेरी शरण में आ जाओ, तेरे मोक्ष की गारंटी मैं लेता हूं.
 

धर्म जगत

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