Published By:धर्म पुराण डेस्क

संन्यास की विधि और आचरण

संन्यासिनो विशुद्धान् हि यतींस्तानूर्ध्वरेतसः । 

सर्वसङ्गविमुक्तांश्च नमामि तत्त्वदर्शिनः ॥

एक कुत्ता मांस से सनी हुई हड्डी मुख में लिये जा रहा था। हड्डी को देखकर कई कुत्तों के मुख में पानी भर आया और उन्होंने आकर कुत्ते को घेर लिया और सब के-सब दांत, पंजों आदि से उसको मारने लगे। यह देखकर बेचारे कुत्ते ने मुख से हड्डी छोड़ दी। 

हड्डी छोड़ते ही सब कुत्ते उसे छोड़कर हड्डी के पीछे पड़ गये और वह कुत्ता अपनी जान बचा भाग गया। उन कुत्तों में हड्डी के पीछे बहुत देर तक लड़ाई होती रही और वे सब-के-सब घायल हो गये। अंत में एक बलवान कुत्ते ने उनसे हड्डी छीन ली और हड्डी को चाटकर उसने अपनी तृप्ति की !

यह तमाशा देखकर प्रजापति के पुत्र आरुणि ऋषि इस प्रकार विचार करने लगे ओहो! जितना दुख है, ग्रहण में ही है, त्याग में दुःख कुछ नहीं है, उलटा सुख है। जब तक कुत्ते ने हड्डी न छोड़ी तब तक पिटता और घायल होता रहा और जब हड्डी छोड़ दी, तो सुखी हो गया। 

इसी प्रकार संसार में जब तक किसी के पास धन होता है, तब तक चोर, डाकू, राजा आदि उसको लूटने की ताक में रहते हैं और पुत्र, पौत्र आदि बान्धव भी नोचते रहते हैं। जिसके पास कुछ नहीं होता, उससे कोई नहीं पूछता कि तेरे मुख में कितने दांत हैं। 

जब तक वृक्ष हरा-भरा, फलता-फूलता रहता है, तब तक नोचा जाता है और वह ईंट-पत्थर खाता रहता है; जब सूख जाता है तो पशु, पक्षी, मनुष्य कोई भी उसके पास नहीं आता। जब तक सिरका बोझ न उतरेगा, तब तक अवश्य बोझों मरता रहेगा, बोझा उतारने पर ही सुखी होगा, इसमें संशय नहीं है। 

इससे सिद्ध होता है कि त्याग ही सुखरूप है और ग्रहण में दुख है। हाथ से ग्रहण करने में दुख हो, इसका तो कहना ही क्या है; मन से ध्यान करने में ही दुख होता है। सच कहा है कि विषयों का ध्यान करने से उसमें संग होता है, संग होने से उनकी प्राप्ति की कामना होती है, कामना में प्रतिबंध पड़ने से क्रोध होता है। 

कामना पूरी होने पर लोभ होता है, क्रोध और लोभ से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति नष्ट हो जाती है, गुरु-शास्त्र का उपदेश याद नहीं रहता, स्मृति नष्ट होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने से जीव नरक में जाता है, इसलिये संग ही अनर्थ का हेतु है। 

जहाँ स्नेह होता है वहाँ भय होता है, स्नेह योग का नाशक है। जो स्नेह का त्याग करता है वह निर्भय हो जाता है और विष्णुपद में स्थित होता है। मुक्ति के मार्ग को रोकने वाला संग है, विद्वानों को भी संग मोहित करने वाला है। विषरूप इस संग से मुमुक्षुओं को अवश्य ही दूर रहना चाहिए। 

जो पुरुष विषरुप विषयों को त्याग कर, मायाजाल से छूटकर, ज्ञान नेत्र लेकर एकाकी पृथ्वी पर विचरता है वही सुखी होता है, यह मोक्ष शास्त्र का कथन है। 

एक शिव का ही ध्यान करें, ध्यान में सहायता की आवश्यकता नहीं है, जिसको अद्वय पद प्राप्त करने की इच्छा हो, उसके लिये संग बहुत भय देने वाला है। जैसे शब्द और अर्थ सर्वदा साथ-साथ रहते हैं, इसी प्रकार ब्रह्म का ध्यान और असंगपना नित्य युक्त ही रहते हैं, यह वेद वेत्ताओं का कथन है। इसलिये अब मुझे शरीर सहित विश्व का संग छोड़कर सुखी होना चाहिये ।

इस प्रकार बहुत कुछ विचार करने के बाद आरुणि प्रजापति के लोक में जाकर कहने लगे-

आरुणि- हे भगवन् ! कर्म का चक्र महान भयंकर है! क्रिया मात्र दुःखरूप है। जब तक मनुष्य कर्म करता रहेगा, कर्म फल भोगने के लिये शरीर रखना पड़ेगा, शरीर धारण करेगा; तो फिर कर्म करेगा! इस प्रकार जब तक कर्म न छूटेगा, चक्की के समान मनुष्य संसार रूप चक्र में घूमता रहेगा, कभी मुक्त नहीं हो सकता! 

कोई कर्म ऐसा नहीं है जो केवल पुण्य रूप ही हो, पापरूप न हो। सभी कर्म पुण्य-पाप-मिश्रित हैं और विचार कर देखा जाय तो पुण्य भी पापरूप ही है, क्योंकि पुण्य से जन्म-मरण रूप संसार तो बना ही रहता है। इसलिये हे भगवन् ! ऐसा उपाय बताइए कि जिससे मैं सम्पूर्ण कर्मों को अशेष रूपसे त्याग कर आवागमन के चक्र से छूटकर आनंद रूप स्वस्वरूप में स्थित हो जाऊँ। 

आरुणि ऋषि की बात सुनकर प्रजापति कहने लगे-

प्रजापति- हे आरुणि! जब तक इस ब्रह्माण्ड की किसी वस्तु की भी इच्छा रहेगी, तब तक कर्म नहीं छूट सकते, जब किसी पदार्थ की कामना न रहेगी, तब कर्म भी आप ही छूट जायेंगे। इसलिये हे आरुणि! अपने पुत्र, भाई, बंधु आदि को, या बाहरी वेशभूषा को, भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सतलोक इन सात ऊपर के लोकों को और अतल, तलातल, वितल, सतल, रसातल, महातल, पाताल इन सात नीचे के लोकों को और ब्रह्माण्ड को त्याग दे। केवल दण्ड, आच्छादन और कौपीन ग्रहण कर शेष सबका त्याग कर दे। 

त्याग ने की विधि इस प्रकार है- 

गृहस्थ, ब्रह्मचारी अथवा वानप्रस्थ उपवीत को पृथ्वी पर अथवा जल में त्याग दे। लौकिक अग्नियों के उधर की अग्नियों में समर्पण कर दे। गार्हपत्य अग्नि, आहवनीय अग्नि और दक्षिणाग्नि ये लौकिक मुख्य अग्नियाँ हैं। जठराग्नि उदर अग्नि है। | 

गायत्री को अपनी वाणी रूप अग्नि में आरोपण करे। कुटीचर ब्रह्मचारी कुटुम्ब को त्याग दे। पात्र को त्याग दे। पवित्र यानी कुशा को त्याग दे, दण्डों को और लोकों को त्याग दे। इसके बाद मंत्र सहित आचरण, करे यानी अब तक भोजनादि मंत्र उच्चारण करके किया करता था अब बिना मंत्र के करे। 

ऊँचा चलना यानी वृक्षादित पर चढ़ना त्याग दे। औषध के समान भोजन करे यानी प्राणरक्षण मात्र आहार लें, अधिक न ले, स्वाद के लिये न खाय, तीनों संध्याओं में स्नान करे, समाधि में यानी आत्मा में संधि करे! सब वेदों में आरण्यक की आवृत्ति करे, उपनिषद की आवृत्ति करे, उपनिषद की आवृत्ति करे !

'ब्रह्म की सूचना देने से निश्चय मैं सूत्र हूँ, मैं ही ब्रह्मसूत्र हूँ' जो इस प्रकार जानता है, वह विद्वान तीन वृत्वाले सूत्र को त्याग दे और 'संन्यस्तं मया' 'संन्यस्तं मया' 'संन्यस्तं मया' इस प्रकार तीन बार कहकर यह प्रतिज्ञा करे 'सर्व भूतों को अभय हो!' 'मुझसे ही सबकी प्रवृत्ति हो रही है!' पश्चात् 'सखा मा गोपायौजः सखायोऽसीन्द्रस्य वज्रोऽसि वार्त्रघ्नः शर्म मे भव यत्पापं तन्निवारयेति ।' 

'हे सखा ! मेरे सामर्थ्य की रक्षा कर, तू सखा है, तू वृत्रासुर को मारने वाला इन्द्र का वज्र है, मेरा कल्याण हो, जो पाप हो उसका निवारण कर!' इस मंत्र से मन्त्रित किये हुए बाँस के दण्ड को और कौपीन को ग्रहण करे ! औषधि के समान भोजन का आचरण करे यानी ओषधि के समान अन्न भक्षण करे। जितना मिल जाए उतना ही भोजन करें यानी उदरपूर्ति से थोड़ा भी मिले तो भी संतुष्ट रहे। ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य का यत्नपूर्वक पालन करे! पालन करे! पालन करे !

परमहंस परिव्राजकों का आसन, शयनादि भूमि पर होना चाहिये। ब्रह्मचर्य का उनको प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। वेद वेत्ताओं का कथन है कि परात्पर ब्रह्म में ही नित्य भक्तिपूर्वक विद्वान् विचरे और निरंतर ब्रह्मचर्य का पालन करे। और भी कहा है कि ब्रह्मचर्य का स्खलन निश्चय मरण के समान है, इसलिये कामना पूर्वक शुक्र यानी वीर्य को न गिरावे, क्योंकि शुक्र ही मनुष्य का निश्चय जीवन है। 

यतियों को मिट्टी का पात्र, तुम्बा अथवा दारु लकड़ी का पात्र रखना चाहिए। काम, क्रोध, हर्ष, रोष, लोभ, मोह, दंभ, दर्प, इच्छा, असूया, ममता, अहंकार इन सबको यती सर्वथा त्याग दे। वर्षा में यती एक स्थान पर रहे और आठ मास दो साथ-साथ विचरें । अकेला विचरे अथवा उपनयन से पूर्व अथवा पीछे विद्वान् पिता, माता, पुत्र, अग्नि, उपवीत कर्म, स्त्री और अन्य को भी त्याग दे। यती भिक्षा के लिए पाणिपात्र अथवा उदर पात्र सहित ग्राम में प्रवेश करते हैं । 

ॐ हि ॐ हि ॐ हि, यही उपनिषद है। त्याग दे, यही उपनिषद है, जो इसको जानता है, वही विद्वान है। जो इस प्रकार जानता है, वह पलाश, बेल, पीपल, गूलर का दण्ड, पूँज की मेखला और यज्ञोपवीत को त्याग देता है, वही शूर है। विष्णु के परम पद को सर्वदा ज्ञानी देखते हैं। जो सबका त्याग करते हैं वे विष्णु के परम पद को प्राप्त होते हैं! जिसको यति योगी प्राप्त होते हैं, वही विष्णु का परम पद है, यह इस प्रकार निर्वाण का अनुशासन है! वेद का अनुशासन है!! वेद का अनुशासन है !

 (लेखक- स्वामी जी भोले बाबा जी)



 

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