मनुष्य का स्थान चराचर जगत के जीवों में बहुत ऊँचा है। वह अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोषों से निर्मित होने के कारण परमेश्वर के पाँच अंशों से युक्त होता है और चौरासी लाख योनियों से ऊपर उठा हुआ है।
वह परमात्म-तत्त्व को पाने का अधिकारी है। जिनके पाप अवशिष्ट हैं, वे भवबन्धन में पड़े रहेंगे। उन्हें द्वन्द्वों के मोह में मुग्ध रहना है। संसार असत् है, असत्कार्य से मनुष्य संसार में बँधता है।
परमात्मा सत् है। सत्कार्य ही मनुष्य को परमात्म-तत्त्व की ओर अग्रसर करता है। सत्कार्य से पापों का क्षय होता है। सुख- दुःखादि द्वन्द्वोंके मोहसे मुक्ति मिलती है। द्वन्द्वमुक्त होकर मनुष्य भगवान्की सेवा का, भजन का दृढ़ व्रत लेता है। धन्य हैं ऐसे पुण्यशाली भक्त! भगवान की अमरवाणी है-
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ते द्वंद्व मोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढ़व्रताः॥
परंतु, भगवान का भजन रूपी सत्कार्य कैसे सम्पन्न हो ? वैसे तो भगवान ने अपना मार्ग साफ बता दिया है- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।' 'जो जिस रूप में भजेगा, मैं उसको उसी रूप में मिलूँगा।' फिर भी भक्ति का मार्ग सरल नहीं होता। 'एहिं सर आवत अति कठिनाई' बड़े अनुभवी का कथन है। सकाम भाव से हो, चाहे निष्काम भाव से—जो भगवान का भजन आवश्यक समझता है, उसे एकांत निष्ठा और अनन्य शरणागति का सहारा लेना पड़ता है। तभी अभीष्ट की सिद्धि हो सकती है।
अनन्य शरणागति के लिए कुछ अभ्यास करना पड़ेगा। शोक-मोह से मुक्त करने वाली परमार्थ निरूपिणी भगवान को वाणी ही मार्ग-प्रदर्शन भी करेगी। मदीयोपासनां कुरु, मामेव प्राप्स्यसि' इससे बढ़कर प्रोत्साहन क्या होगा ?
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।
इससे बढ़कर भगवान को जानने का, भगवान को और भगवान की अहेतु की कृपा प्राप्त करने का मार्ग कहाँ मिलेगा? सम्भवतः इससे भी बढ़कर एक और यज्ञ अनुष्ठान है। उसे भी भक्तों की कल्याण कामना से भगवान ने स्वमुख से कह ही दिया है- 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ।' तब तो वस्तुतः राजमार्ग मिल गया। भक्त भक्ति भावना में भीज-भीज कर अपने परम रसामृत मूर्ति इष्ट देव भगवान को उनका नाम लेकर पुकारे, उनकी कृपा, करुणा और शरण की याचना करे।
अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात्।
नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्॥
नामोच्चारण की औषध से तापत्रय का विनाश अवश्यम्भावी है। जप यज्ञ की महिमा ही ऐसी है। भवाब्धि में डूबते-उतराते मनुष्यों को पार लगाने के लिये नामोच्चारण रूपी नौका से बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं। 'कहत कबीर नाव नहिं छाड़ौ, गिरत परत चढ़ि ऊँचा।'
'कलि महँ केवल अधारा।'
क्रान्तदर्शी सभी ज्ञानी भक्त इस विषय में एकमत हैं। इस महायज्ञ का अनुष्ठान सफल होगा तप से। साधारण तप नहीं, परम तप। स्मृति कहती है- 'मनसश्चेन्द्रियाणां च ौ काम्यं परमं तपः।'
'मन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही परम तप है।' इस परम तप के द्वारा नाम-जप करता हुआ मनुष्य शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु और समाहित होकर भगवान की प्रीति पाकर भगवन्मय हो जाता है- भक्त-भगवान एक प्राण हो जाते हैं।
'अहं प्राणश्च भक्तानां भक्ताः प्राणा ममापि च।'
(ब्रह्मवैवर्त पुराण)
लेखक- राजमंगल
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