 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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- १. तत अर्थात् तन्त्रीगत्, २. आनद्ध अर्थात् चर्माबद्ध, ३. शुषिर अर्थात् रन्ध्रयुक्त और ४. घन अर्थात् धातु निर्मित।
तन्त्रीगत वाद्य यंत्र का साधारण नाम वीणा है। 'संगीत-दामोदर ग्रन्थ में इसके २९ प्रकार-भेद और उनका विस्तृत विवरण दिया गया है। हम नीचे 'संगीत दामोदर' के अनुसार २९ प्रकार की वीणा का नामोल्लेख करते हैं-१. अलावणी, २. ब्रह्मवीणा, ३. किन्नरी, ४. लघुकिन्नरी, ५. विपंची, ६. वल्लकी, ७. ज्येष्ठा, ८. चित्रा, ९. घोषवली, १०. जया, ११. हस्तिका, १२. कुंजिका, १३. कूर्मी, १४. सारंगी, १५. परिवादिनी, १६. त्रिशवी, १७. शतचन्द्री, १८. नकुलौष्ठी, १९. ढंसवी, २०. ऊडंबरी, २१. पिनाकी, २२. निःशंक, २३. शुष्कल, २४. गदावारणहस्त, २५. रुद्र, २६. स्वरमण्मल, २७. कपिलास, २८. मधुस्यन्दी और २९. घोण
इसके अतिरिक्त नारदकृत 'संगीतमकरन्दमें' १९ प्रकारकी वीणाओंका उल्लेख आया है और सारंगदेव मतानुसार वीणा केवल ११ प्रकार की ही है।
वीणा की पोगरी अथवा वीणा का दंड खोखली लकड़ी द्वारा और तन्त्री ताँत, सन, सूत आदि उपकरणों की सहायता से तैयार की जाती है। वीणा निर्माण करने के लिये और भी एक प्रधान उपकरण है, जिसे अलाबु कहते हैं। अलावणी वीणा का निर्माण प्रणाली संगीत दामोदर ग्रन्थ में नीचे लिखे अनुसार वर्जित है
कनिष्ठिकापरिधद्धिमध्यच्छिद्रेण संयुतः । दशयष्टिमितो दण्डः खादिरो वैणवोऽथवा ॥
अधःकरभवानू छत्रवल्याभिशोभितः ।
नवाङ्गलादधश्छिद्रोपरिचन्द्रार्द्धसन्निभाम् निवेश्य चुम्बिकां भद्रालाबुखण्डं निवेशयेत् । द्वाद्वशाङ्गुलविस्तारं दृढपक्वं मनोहरम् ॥ तुम्बिकावेधमध्येन दण्डच्छिद्रे तु निर्मिताम् । अलाबुमध्यगां डोरीं कृत्वा स्वल्पान्तु काष्ठिकाम् ॥ तथा संवेष्ट्य तन्मध्ये काष्ठिकां भ्रामयेत्ततः । यया स्यान्निश्चलालाबुर्बन्धश्च करभोपरि ॥ पञ्चाङ्गुलिषु संत्याज्यालाबुं स्वल्पाञ्च बन्धयेत् । केशान्तनिर्मिता पट्टमयी सूत्रकृताथवा ॥ समा सूक्ष्मा दृढा तत्र तन्त्री देया विचक्षणैः ।
एतल्लक्षणसंयोगादलावणी प्रकीर्तिता ॥ दूसरे दो वाद्य यंत्र बनाने के सम्बन्ध में भी संगीत शास्त्र-ग्रंथों में विशद विवरण मिलता है।
प्राचीन काल में चर्माच्छादित वाद्य को आनंद या अवनद्ध वाद्य कहते थे। संगीत विषयक विविध ग्रंथों में इसके कई तरह के भेदों का उल्लेख पाया जाता है। आनद्ध वाद्ययन्त्रों में से कुछ को के नाम निम्न प्रकार हैं
१ मुरज, २ पटह, ३ ढक्का, ४ विश्वक, ५ दर्पवाद्य, ६ घन, ७ पणव, ८ सरुहा, ९ लाव, १० जाहव, ११ त्रिवली, १२ करट, १३ कमठ, १४ भेरी, १५ कुडुक्का, १६ हुडुक्का, १७ झनसमुरली, १८ झल्ली, १९ ढुक्कली, २० दौंडी, २१ शान, २२ डमरू, २३ ढमुकि, २४ मड्डू, २५ कुण्डली, २६ स्तुंग, २७ दुन्दुभी, २८ अंक, २९ मर्छल, ३० अणीकस्थ ।
इनमें दुन्दुभी-भेरी प्रभृति रणवाद्य हैं। संगीतशास्त्र और भरत आदि के मतानुसार मर्छल-मृदंग ही सर्वोत्कृष्ट वाद्य हैं। शास्त्र में मर्छ लकी निर्माण प्रणाली के सम्बन्ध में
लिखा है—इसका मध्यभाग स्थूल और दोनों मुँह चर्माच्छादित रहते हैं। यह डेढ़ हाथ प्रमाण दीर्घ और इसके बायें तरफ के मुंह का व्यास १२, १३ अंगुल तथा दक्षिण तरफ के मुँहका व्यास एक वा आध अंगुल कम होता है। खैर की लकड़ी का मार्ग श्रेष्ठ और दूसरी जाति की लकड़ी का निकृष्ट होता है। रक्त चन्दन की लकड़ी से तैयार किये गये मर्छलसे बहुत ही गम्भीर ध्वनि निकलती है। भस्म, गेरू, मिट्टी, चावल के माँड, गोंद प्रभृति के मेल से स्याही नामक एक प्रलेप विशेष तैयार करके मर छलके दक्षिण मुँह पर लेपन करते हैं और बायें मुँहपर पूरिका दी जाती है। सब प्रकार के वाद्य यन्त्र मर्छल या मृदंग के सहयोग से बजाये जानेपर बहुत ही संशोधन प्रतीत होते हैं।
रन्ध्रयुक्त वाद्य वंशी आदि को सुषिर कहा जाता है। संगीताचार्य ने अनेक प्रकार के सुषिर बताये हैं। उनमें कुछेकके नाम इस प्रकार हैं १ वंशी, २ प्यारी, ३ मुरली, ४ माधुरी, ५ तित्तिरी,
६ भृंखकाहल, ७ तोरही, ८ कक्का, ९ भृंगीका, १०
स्वरनाभि, ११ भृंग, १२ कृपालिका ।
सुषिर वाद्ययन्त्रों में वेणु खोखली लकड़ी, रक्तचन्दन, श्वेतचन्दन, हस्तिदन्त, स्वर्ण, रौप्य, ताम्र, लोह और स्फटिक आदिसे बनायी जाती है।
वंशी वर्तुल, सरल और पर्व दोषरहित होती है तथा इसका गर्भ रन्ध्र कनिष्ठ अंगुली के तुल्य होता है। इसके अग्रभाग से दो अंगुल के अंतर पर स्थित फूत्कार-रन्ध्र से ५ अंगुल के अन्तर पर ७ छेद और इन ७ छेदों में परस्पर प्रायः दो अंगुल का व्यवधान होना आवश्यक है। इन सात छेद में से हर एक छेद छोटे-छोटे बीज के बराबर होता है।
मतंग मुनि ने महानन्द, नन्द, विजय, और जय इन चार प्रकार की वासियों को उत्तम कहकर निर्देश किया है और उनकी निर्माण प्रणाली ऊपर कही हुई वंशी का निर्माण प्रणाली से किंचित भिन्न बतायी है। वंशीके फूत्कार-छिद्र पर ओठ रखकर वंशी बजाने की
विधि है। निबिड़ता, प्रौढ़ता, सुस्वरत्व, शीघ्रता एवं
माधुर्य- ये फूत्कार के ५ गुण हैं और शीत्कार, बहुलता, स्तब्धता, विस्वर स्फुटित स्वर, लघु स्वर, मधुरता यह ६ फूत्कार के दोष हैं।
वृथा वादन, प्रयोग बाहुल्य एवं अल्पता वादक बजाने लेके दोष हैं और स्थान तथा लयकी अभिज्ञता, गमक-निपुणता, स्फुट स्वर, शीघ्र हस्त बजाने वाले के गुण कहे हैं।
प्रमुक्ति, बद्ध मुक्ति, युक्ति, संस्थान, सुस्वरत्व और अंगुलिसारण- अंगुली सरकाना क्रिया के गुण हैं। करताल आदि धातुमय बाजों को घन वाद्य कहते हैं। घन वाद्य भी कई तरह के हैं। उसमें कुछ को के नाम नीचे देखिये -
करताल, कांस्यवन, जय घंटा, शुक्तिका, कंठिका, पटवाद्य, पट्टा घोष, घर्घर, झंझताल, मंजीर, कर्तरी, उप्कूक आदि। करताल के विषय में संगीतशास्त्र में इस प्रकार उल्लेख है
त्रयोदशाङ्गुलव्यासौ शुद्धकांस्यविनिर्मितौ। मध्यमुखौ स्तनाकार तन्मध्ये रज्जू गुम्फित ौ ॥ पद्मिनीपत्रसदृशौ कराभ्यां रज्जुयन्त्रितौ । करतालावुभौ वाद्यौ ने वाद्यपाटे झंकृति ॥
वाद्य विद्याविशारदोंने वाद्यके २० प्रकार के प्रबन्धोंका उल्लेख किया है। उनके नाम - १ यति, २ उभ, ३ ऊण्ठवली, ४ अवच्छेद, ५ जोड़नी, ६ चण्डनी, ७ पद, ८ समहंस, ९ झंकार, १० पैसार, ११ तुटकु, १२ ऊस्वर, १३ देंकार, १४ मलप, १५ मलपांक, १६ प्रहरण, १७ अन्तरा, १८ दुरक्करी, १९ यवनिका, २० पुष्पाजंलि
किंतु 'संगीत दामोदर' ग्रन्थ में केवल १२ प्रबंधन का उल्लेख देखा जाता है। उनमें से आठ का नाम ऊपर लिखित तालिका में दिये गये प्रबन्ध से भिन्न है। हम 'संगीत दामोदर' से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं— यति रोड व्यवच्छेद गजरो रुपलं ध्रुवम् । गनपः सारिगो नीच नादच कथित स्तथा ॥ ..प्रहरणं वृन्दनञ्च प्रबन्धा द्वादश स्मृताः ॥ प्रबन्ध भेद से ही बाजों के विविध स्वरों की उत्पत्ति हुई है।
 
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