Published By:धर्म पुराण डेस्क

पौराणिक विद्या, आकाश संचरण विद्या, क्या आकाश मार्ग से गमन किया जा सकता है? 

आकाश मार्ग से गमन करने की शक्ति कैसे मिलती है? आकाश संचरण विद्या क्या है?

संसार के प्रत्येक धर्म एवं संप्रदाय में साधना के द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का विधान है. भारतीय धर्म एवं संस्कृति में ईश्वर प्राप्ति के मुख्य चार साधन बताये गये हैं ज्ञान मार्ग, योग मार्ग, कर्म मार्ग तथा भक्ति मार्ग. इनमें से किसी को भी अपना कर साधक अपने इष्ट को प्राप्त कर सकता है. इसी तरह अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करने के लिए यंत्र, मंत्र एवं तंत्र का भी विधान है. इन्हें अपना कर साधक सिद्धि प्राप्त करता है.

तिब्बत में भी एक विशिष्ट योग साधना है जिसका नाम है लुङ्गगोम. लुङ्गगोम तिब्बत की असमान्य गति एवं आकाश में उड़ने का एक विशिष्ट साधन है. सच पूछा जाए तो यह भारतीय प्राणायाम की तरह ही एक विशिष्ट पद्धति है. इस साधना में भिन्न-भिन्न प्रकार की सिद्धियां हैं. इसको मन की एकाग्रता के साथ संयुक्त किया जाता है. इसके द्वारा साधक सैकड़ों-हजारों किलोमीटर की दूरी कम समय में ही तय कर लेता है.

हालांकि अब यह प्रक्रिया तिब्बत में भी विलुप्ति के कगार पर है. लेकिन, पहले यह प्रक्रिया वहां बहुत ही अधिक प्रचलित थी.

कहा जाता है ११वीं शताब्दी के संत कवि मिलारेस्पा के लामा गुरु, स्वयं मिलारेस्पा तथा

गुरुभाई त्रपा आकाश में घोड़े से भी अधिक तीव्र गति से उड़ा करते थे. मिलारेस्पा ने तो स्वयं कहा है- "मैंने एक बार अत्यधिक सुदीर्घ मार्ग, जो महीनों एवं वर्षों में पार हो पाता, बहुत ही कम समय में पार कर लिया.

अलेक्जेंड्रा डेविड नील ने इस प्रकार के तीन लुंङ्गगोम साधकों को आकाश में उड़ते हुए देखा था.

लुङ्गगोम की साधना में शरीर की सहनशक्ति की अत्यधिक वृद्धि का अभ्यास किया जाता है. इस प्रक्रिया के सिद्ध होने पर साधक निरंतर अनेक दिन अहोरात्र तक तब तक चलते रहते हैं जब तक कि वे अपने गंतव्य स्थल तक पहुंच नहीं जाते. त्सांग प्रान्त का शालू गोम्पा इस साधना प्रशिक्षण का प्रमुख केंद्र रहा है. इसके अतिरिक्त इसके अनेक केंद्र रहे हैं.

डॉ राम स्वार्थ मेहता के अनुसार भारतीय योगशास्त्र में भी इस साधना की झलक मिलती है. इसके अनुसार शरीर में भूतत्व एवं जल तत्व की मात्रा घटाकर अग्नि एवं वायु तत्व की अत्यधिक वृद्धि की जाती है. फलस्वरूप, शरीर अत्यंत हल्का हो जाता है. शरीर हल्का हो जाने के कारण साधक आकाश में सैकड़ों-हजारों किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से गमन कर सकता है.

इस साधन प्रक्रिया में किसी अनुभवी गुरु के निर्देशानुसार शिष्य को प्राणायाम का अभ्यास करना पड़ता है. इसके साधक को दौड़ने का भी अभ्यास करना पड़ता है. फिर वह गुरु द्वारा उपदिष्ट मंत्र-. विशेष का कुछ काल तक जप एवं ध्यान करता है. आकाश गमन के समय इसी मंत्र का साधक को जप करना पड़ता है. लेकिन, यहां ध्यान देने की विशेष बात यह है कि इस तारतम्य में प्रत्येक पद मंत्र एवं प्राणायाम के सम पर पढ़ना चाहिए. साधक को अपनी दृष्टि गंतव्य स्थान पर केंद्रित रखनी पड़ती है. साधारणतः, गुरु अपने शिष्य को किसी आकाश के तारे पर अपनी व दृष्टि केंद्रित रख कर यात्रा करने का उपदेश देते हैं. 

एक लंबे अभ्यास के 3 बाद प्रगाढ़ सुषुप्ति एवं योग निद्रा में उ सिद्धि प्राप्त कर लेने पर तारे के अस्त हो जाने पर साधक की आंखें उस तारे में ही केंद्रित रहते हैं और में उसका ध्यान प्रवाह भंग नहीं हो पाता है. दीर्घ अभ्यास के बाद साधक के पैर पृथ्वी का संस्पर्श छोड़ देते हैं और साधक वायुमंडल मे में तैरने लगता है. यह एक ऐसी योगनिद्रा है जिसमें साधक को अपने दे शरीर के भार का अनुभव ही नहीं व होता है; क्योंकि वह अत्यंत हल्का हो जाता है.

इस साधना का अभ्यास शाम के समय, चांदनी में किसी समतल भूमि वाले लंबे-चौड़े रेगिस्तानी मैदानों आदि में किया जाता है. शुरुआत में साधक दोपहर, तृतीय प्रहर, जंगल, उपत्यका और पहाड़ के व्यवधानों पर विजय नहीं कर पाते और इसी प्रकार तारों के अस्त हो जाने पर अग्रवर्ती यात्रा भी नहीं कर पाते. वे मार्ग में ही रुक जाते हैं, लेकिन अनुभवी गुरुओं के लिए ये व्यवधान कोई अर्थ नहीं रखते. यदि आपने कथासागर पढ़ा होगा तो आपने देखा होगा कि इसकी आरंभिक कथाओं में इस प्रकार के आकाश-गमन की यात्राओं का कई

स्थानों पर उल्लेख हुआ है. पुराणों में पादुका सिद्धि, लेप सिद्धि आदि के द्वारा आकाश गमन की अनेकों कथाएं मिलती हैं. आज भले ही यह विद्या योग्य गुरु एवं शिष्य के अभाव में लुप्त हो गयी हो, लेकिन इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पहले के साधक आकाश मार्ग से गमन करते थे.

इस विद्या में भगवान बुद्ध और आचार्य शंकर भी निष्णात थे. पहले के ऋषि-मुनि इस विद्या में निष्णात होते थे. नारद तो सदैव आकाश मार्ग से ही, वह भी मन की गति से, गमन करते थे. रावण भी इस विद्या में निष्णात था. उसने अपने गुप्तचरों को आकाश मार्ग से ही भेजा था. 

विभीषण भी इस विद्या में माहिर थे. वे अपने मंत्रियों के साथ राम के पास आकाश मार्ग से ही आये थे. भगवान वेदव्यास भी आकाश मार्ग द्वारा जब जहां चाहते थे वहां उपस्थित हो जाते थे. यह भी कहा जाता है कि वनवास के दौरान अर्जुन अपने पिता इंद्र के स्वर्गलोक में आकाश मार्ग से ही गये थे. बाली भी इस विद्या का ज्ञाता था.


 

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