"कला कुण्डलिनी चैव, नाद शक्ति समन्विते।" - यह उक्ति षट्चक्र निरूपण ग्रंथ में समाहित है, जो योग और तंत्र शास्त्र के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इसमें वर्णित है कि कला, कुण्डलिनी, और नाद शक्ति में एक महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है।
इसमें चित्रित होता है कि अनाहत नाद वह शक्ति है जो भौतिक द्रव्यों के कम्पनों के बिना उत्पन्न होती है और यह चेतना की सृष्टि के लिए एक सक्रियता से समुद्रद्भूत होती है। इसे सुनने की क्षमता को विकसित करने के लिए नाद-साधना की आवश्यकता होती है और इसे लययोग कहा जाता है।
नाद-साधना और लययोग:
नाद-साधना, या लययोग, एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें साधक अनाहत नाद की साधना करता है और उसे चित्रवृत्ति में विलीन करने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया का लक्ष्य है परमात्मा सत्ता में आत्मसत्ता का सम्पूर्ण विलीनीकरण करना। मूल रूप से नाद प्रसार या 'ॐ' में चित्त को समाहित करना नाद-साधना या लययोग की प्रक्रिया का चरम विकास है और इससे परमात्मा सत्ता में आत्मसत्ता का विलय होता है।
अनाहत नाद का अभ्यास:
साधक को अनाहत नाद की साधना के लिए सम्पूर्ण शरीर में ऊर्ध्वगामी ध्वनि धारा के रूप में अनुभूत अनाहत नाद की अभ्यास साधना करनी चाहिए। इस नाद का प्रवाह ऊपर की ओर बढ़ता है और मस्तक के सहस्रार क्षेत्र में पहुँचकर वहां हजारों गुना गुंजित होता है। इस दिव्य गुज्जर में चित्तवृत्ति को लय करने का निरंतर अभ्यास करना चाहिए। सहस्त्रार में वह घनीभूत नाद बिन्दु या ज्योति के रूप में परिणत होता है।
नाद योग के लाभ:
नाद योग के द्वारा सुनी जाने वाली दिव्य ध्वनियां अनाहत होती हैं, क्योंकि वे अनंत अंतरिक्ष में स्वतः विनिःसृत होती रहती हैं। इस प्रक्रिया से चित्त वृत्ति नाद-अभ्यास में लीन होती है और सारी चपलताएँ भूल जाती हैं, जिससे चित्त में प्रशांत भाव प्रबल होता है और वासना की मादकता से विरक्ति हो जाती है। इस तरह, नाद योग साधक को मानवता के उच्चतम लक्ष्यों की प्राप्ति में मदद कर सकता है और उसे आत्मा के साक्षात्कार की दिशा में आगे बढ़ने में सहायक हो सकता है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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