सचमुच यह संसारभर का ज्ञानपीठ था। इसीने तत्कालीन जगत को भारतीय ज्ञान, विज्ञान, धर्मशास्त्र, साहित्य, दर्शन, कला, शिल्प, सभ्यता और संस्कृति आदि का दान दिया था। यहाँ के स्नातक प्रकाण्ड पाण्डित्य में अपना सानी नहीं रखते थे। जब बौद्ध धर्म की विजय पताका सारे एशिया खण्ड में फहरा रही थी,
भारतीय ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत नालन्दा ही था। नालन्दा में अध्ययन किये बिना शिक्षा अधूरी ही समझी जाती थी। नालन्दा की स्थिति के बारे में इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं।
'पालि-साहित्य' में नालन्दा राजगृह से आठ मील की दूरी पर बताया गया है। चीनी यात्री 'फाहियान' की भी यही सम्मति है। और दूसरे चीनी यात्री ट्वान् ध्वाड्के कथनानुसार नालन्दा वर्तमान बिहार शरीफ शहर के दक्षिण-पश्चिम कोण में एक आम का बगीचा था। उस बगीचे में 'नालन्दा' नाम का एक नागराज रहता था।
यह भी कहा जाता है कि भगवान् बुद्ध पूर्वजन्म में वहाँ 'बोधिसत्त्व' के रूप में पैदा हुए थे। खैर जो कुछ हो, खंडहरों की खुदाई हो जाने पर अनुमान और कल्पना की कोई गुंजाइश ही न रही।
नालन्दा का भग्नावशेष 'बख्तियारपुर' बिहार लाइट रेलवे के' 'नालन्दा' स्टेशन से लगभग एक मीलपर है। खुदाई में आर्य नागार्जुन की एक मूर्ति मिली है। अगर यह प्रतिमा शून्यवादी नागार्जुन की मान ली जाय तो इससे यह साबित होता है कि नालन्दा दूसरी शताब्दी के मध्य में एक सुप्रतिष्ठित शिक्षा केन्द्र था। क्योंकि नागार्जुन महायान के प्रवर्तक थे और नालन्दा महायानियों का गढ़।
जहाँ कभी नालन्दा विद्यापीठ के सुन्दर सुदृढ़ भवन थे, वहाँ अब 'बड़गाँव' नाम की एक बस्ती है। इसके निकट स्थित विस्तृत और सुदूरव्यापी नालन्दा के ध्वंसावशेष—ऊँची-ऊँची उजाड़ दीवारें, अनगिनत टीले, प्राचीन तालाब आदि अपने प्राचीनतम गौरवमय दिनों की महत्ता के सूचक हैं।
नालन्दा विश्वविद्यालय में सुदूरवर्ती चीन, जापान, तातार, मध्यएशिया, तिब्बत, श्याम, अनाम, बर्मा, मलय आदि अनेक देशों से ज्ञान-पिपासु व्यक्ति अध्ययनार्थ आते थे। यहाँ अठारह बौद्धनिकाय-ग्रन्थों के अतिरिक्त वैद्यक, दर्शन, साहित्य, कला, ब्राह्मण एवं जैन-दर्शन आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। खंडहरों की खुदाई के सामान यह कह रहे हैं कि केवल किताबी क्षिक्षा ही पर्याप्त नहीं थी, हस्तकौशल की शिक्षा का भी सुप्रबन्ध था।
यहाँ चीनी स्नातक ह्वेन्सांग के अनुसार नालन्दा में दस हजार से अधिक छात्र पढ़ते थे और अध्यापकों की संख्या डेढ़ हजार थी। प्रधानाध्यापक शीलभद्र थे। विश्वविद्यालय के साथ बिहार में आठ विस्तृत कक्ष और तीन सौ प्रकोष्ठ थे। सभा-सदन दस भागों में विभक्त था।
शिक्षार्थियों के रहने के लिये भिन्न-भिन्न तीन सौ छात्रावास भवन थे। तीन विशाल पुस्तकालय - रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक नाम के थे। इन पुस्तकालयों में हीनयान, महायान, वज्रयान आदि बौद्ध तथा अन्यान्य सम्प्रदायों के विविधविषयक ग्रन्थ मौजूद थे।
शिक्षा विभाग में जिनमित्र, शीघ्रबुद्ध, चन्द्रपाल, ज्ञानचन्द्र, स्थिरमति, प्रभाकरमित्र, धर्मपाल, भद्रसेन, शान्त रक्षित आदि प्रथम श्रेणी के प्रकाण्ड विद्वान् थे जिनमें आचार्य शान्तरक्षित का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनके समय में नालन्दा की कीर्ति अखिल विश्व में परिव्याप्त हो चुकी थी।
नालन्दा केवल मगध का ही ज्ञान भण्डार नहीं वरं समस्त संसार में ज्ञान-विज्ञान का पथप्रदर्शक था। नालन्दा के अन्तिम दिनों में घोर वज्रयान का विकृत से विकृत रूप जनता में प्रचारित किया जा रहा था। इन्हीं आन्तरिक दुर्बलताओं और मुसलमानों के आक्रमण ने नालन्दा को मिट्टी में मिला दिया।
मुसलमानों ने बड़ी निष्ठुरता से इस विद्यालय को लूटा। इसके साक्षी हैं-वहाँ की जली ईंटे चौखटें, चावलके जले हुए दाने इत्यादि । भारतीय स्थापत्य कला के उत्कृष्टतम नमूने बर्बाद किये गये !
यदि भयंकर अमानुषिक प्रहारों से नालन्दा का नाश न हुआ होता तो वहाँ के ग्रन्थ-संग्रहालय आज भी दुनिया को यह बतला सकते कि उस समय नालन्दा कितना विस्तृत एवं गम्भीर ज्ञान-समुद्र था, उसका ज्ञान भण्डार भूमण्डल पर कैसा अद्वितीय था।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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