 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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किसी ने सच ही कहा है - सदा न जोबन थिर रहे, सदा न जीवै कोय।
रावण का वंश बहुत विशाल था पर हुआ क्या? यही ना -
इक लख पूत सवा लख नाती,
ता रावण घर दिया ना बाती।
यह तो समय बदल जाने की ही बात है।
महाभारत के शान्ति पर्व (80/8) में परिवर्तन (variance, somerset) को लक्ष्य करते हुए वेदव्यास जी लिखते हैं -
असाधुः साधुतामेति साधुर्भवति दारुणः।
अरिश्च मित्रं भवति मित्रं चापि प्रदुष्यति॥
भावार्थः असाधु अर्थात दुष्ट मनुष्य साधु अर्थात भला व्यक्ति बन जाता है और साधु अर्थात भला व्यक्ति दारुण अर्थात दुष्ट बन जाता है, शत्रु मित्र बन जाता है और मित्र शत्रु।
सच पूछा जाय तो मनुष्य बलवान नहीं होता, समय ही बलवान होता है, इसीलिए तो कहा गया है
पुरुष बली नहि होत है समय होत बलवान।
भीलन लूटी गोपिका वहि अर्जुन वहि बान॥
मलिक मोहम्मद जायसी अपनी सुप्रसिद्ध रचना पद्मावत में कहते हैं -
मोतिहि जौं मलीन होइ करा। पुनि सो पानि कहाँ निरमरा॥
भावार्थः एक बार मोती की कान्ति मलिन हो जाने पर उसे फिर से वही कान्ति नहीं मिलती।
समय के साथ परिवर्तन कैसे होता है यह बताते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमें पूछिहै कौन॥
भावार्थः तुलसीदास जी कहते हैं कि पावस ऋतु अर्थात बरसात का मौसम आने पर कोयल मौन धारण कर लेती है, क्योंकि मेढकों के टर्राने की आवाज के बीच कोयल की आवाज कौन सुनेगा?
नरोत्तमदास अपनी प्रसिद्ध खंडकाव्य "सुदामाचरित" में कहते हैं -
कै वह टूटि सी छानी हुती कहँ
कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग मे पनही न हुती कहँ
लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहँ
कोमल सेज पै नींद न आवत।
कै जुरतो नहिं कोदो सवाँ, प्रभु
कै परताप ते दाख न भावत॥
भावार्थः कृष्ण के सखा सुदामा का कभी टूटी छत वाली झोपड़ी थी तो अब विशाल भवन है जिसे सारे कमरे सोने से सुसज्जित हैं। कभी सुदामा के पैरों में पनही तक नहीं होती थी और अब उनके लिए हाथी लेकर महावत खड़े रहते हैं। कभी कठोर भूमि पर सोकर रात कटती थी तो अब कोमल शय्या पर भी नींद नहीं आती और कभी मोटा-झोटा अन्न तक भी नहीं मिल पाता था और आज मेवे भी सुदामा को भाते नहीं हैं।
समय के बारे में कवि बिहारी लिखते हैं -
समै पलटि पलटै प्रकृति, को न तजै निज चाल।
भावार्थः समय बदलने पर प्रकृति भी पलट जाती है, इस संसार में भला ऐसा कौन है जो समय के साथ अपनी चाल न बदलता हो।
जयशंकर प्रसाद अपने नाटक "स्कन्दगुप्त" में लिखते हैं -
परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है, निश्चेष्ट शान्ति मरण है। प्रकृति क्रियाशील है।
सुमित्रानन्दन पंत जी अपनी रचना "पल्लव" में कहते हैं -
आज बचपन का कोमल गात जरा का पीला पात।
चार दिन सुखद चाँदनी रात और फिर अंधकार अज्ञात॥
भावार्थः बचपन में जो कोमल शरीर था वह आज वृद्धावस्था में पीला और झुर्रीदार हो गया है। चार दिन की सुखद चाँदनी होती है फिर अंधेरा ही रह जाता है।
"भारत भारती" में मैथिलीशरण गुप्त जी बताते हैं -
संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
है निशि-दिवा सी चूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज राजा बन रहा है रंक कल होता वही,
जो आज उत्सव-मग्न है कल शोक से रोता वही॥
भावार्थः इस संसार में भला किसका समय एक सा रहता है! रात और दिन की तरह विपत्ति और सम्पत्ति आते-जाते रहते हैं। जो आज अमीर है वही कल गरीब हो जाता है और जो आज उत्सव मना रहा है उसी को कल शोक से रोना भी पड़ता है।
"चित्रलेखा" उपन्यास में भगवतीचरण वर्मा जी लिखते हैं -
संसार क्या है? शून्य है। और परिवर्तन उस शून्य की चाल है।
बन्धुओं समय कभी भी एक जैसा नहीं होता, आपने ये लोकोक्तियाँ अवश्य ही सुनी होंगी
"सब दिन जात न एक समान"
"कभी दिन बड़े तो कभी रात बड़ी"
"कभी नाव गाड़ी पर, कभी गाड़ी नाव पर"
"चार दिनों की चांदनी फिर अंधियारी रात"
"घूरे के भी दिन फिरते हैं"
अतः समय के अनुसार स्वयं को ढालने में ही बेहतरी है।
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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