ओंकार - समग्रता से तात्पर्य ओंकार की तथ्यात्मकता एवं सारगर्भिता को जानना और पहचानना है। आधुनिक विज्ञान ध्वनि को अनित्य और क्षणिक मानता है। पर वैदिकों का शब्द या शब्द - ब्रह्म न तो उच्चरित ध्वनि है और न ही विस्फोट। स्फोट का सम्बन्ध भी उच्चरित ध्वनि के मौलिक रूप से ही है। वाक्यपदीय ने इसका मूल स्वरूप ओंकार माना है।
पर प्रश्न यह है कि यह ओंकार है क्या ? इसकी चर्चा तो प्राय: सभी उपनिषदों में मिलती है, किन्तु इसकी तात्विक व्याख्या अब भी स्पष्ट नहीं है। ओंकार का सम्बन्ध अक्षर - ब्रह्म से है। अक्षर-ब्रह्म की व्याख्या प्रतिभा - दर्शन के विज्ञान मात्र से की जा सकती है। इसका सूत्रपात 'ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्' आदि ऋचा करती है। यह वैदिक दर्शन की आधारशिला है। स्फोट तो परा या उत्तरार्ध के तत्वों की अंतिम श्रेणी के शब्द का स्वरूप है।
उसके पहले उत्तरार्ध के प्रथम बीस तत्वों तथा पूर्वार्ध के अपरा चौबीसवें तत्त्व और ॐ की बात को तो सामान्यतः कोई भी नहीं जानता है। यह स्पष्ट है कि स्फोटवाद व्याकरण का विषय नहीं है, वैयाकरण तब मीमांसक का आश्रय लेते हैं। हमारे ऋषि- मुनि एवं आचार्य ब्रह्म को शब्द या वाक्य अथवा शब्द- ब्रह्म कहते आये हैं। इसमें क्या रहस्य है ? वैयाकरणों का विषय भी ब्रह्म-परक शब्द या स्फोट भी नहीं है। स्फोट- तत्व तो प्रतिभा - दर्शन या शिक्षा शास्त्र अथवा भाषा तत्त्व शास्त्र का विषय है।
न्याय- वैशेषिक का विषय भी ब्रह्म विषयक तत्व नहीं है। इन दोनों के क्षेत्र तो बहुत स्थूल विषयों की व्याख्या करना है। व्याकरण को भाषा के शब्द - रूप स्पष्ट करना हैं ; जबकि न्याय- वैशेषिकों को परमाणु से आगे के तत्वों के गुण- विकार एवं विकासो की करना मात्र ध्येय है। अत: इनके द्वारा ब्रह्म -परक शब्दों की व्याख्या निर्मूल ही कही जा सकती है ; एक रूप से इसे अनधिकार चेष्टा भी कहा जा सकता है।
'आप्त वाक्य शब्द: 'द्वारा वाक्य को ही शब्द की संज्ञा दी गयी है। इसमें मंत्रात्मक वेद, ब्राह्मण और उपनिषदों के वाक्यों को शब्द संज्ञा से संयुक्त किया गया है। मीमांसकों का 'शब्द: 'अर्थात शब्द यही वेद रूप शब्द है। वास्तव में वेद नाम तो ब्रह्म का ही है ; मंत्रात्मक, ब्राह्मणात्मक, उपनिषदात्मक वाक्यों का नहीं, क्योंकि इसमें आदि से लेकर अंत तक केवल अक्षर - ब्रह्म - रूप वेद अर्थात ज्ञानमय ब्रह्म की व्याख्या है।
शब्द - ब्रह्म तो अक्षर- ब्रह्म है। यह अक्षर-ब्रह्म भी निरृति या द्यौ के रूप में शुद्ध ब्रह्म में एकाकार हो जाता है। गीता के अनुसार अक्षर-ब्रह्म का ही नाम पुरुष और शब्द -ब्रह्म है। भारतीय संस्कृति में ॐ का विशिष्ट स्थान है। सभी मोक्षवादी परम्पराएं इसका महत्व स्वीकार करती हैं। वैदिक परम्परा का तो यह प्राण ही है।
प्रत्येक मंत्र में इसका होना अनिवार्य-सा ही है। वैदिक ऋषि तो ब्रह्म को भी ओंकारमय ही मानते हैं। उनके विचारानुसार ॐ शब्द ब्रह्म है। सारी सृष्टि ॐमय है ही। ॐ की शक्ति से सम्पूर्ण संसार -- सूर्य, चन्द्र, तारा, जल, वायु आदि सभी शक्तियां परिचालित हो रही हैं। ॐ का पर्यायवाची 'प्रणव' है।
प्रणव का अभिप्राय प्राण देने वाला होता है। योग शास्त्र के अनुसार ॐ मनुष्य की प्राणशक्ति को प्रज्वलित करने वाला है। अत: वैज्ञानिक युग में जितना भौतिक ऊर्जा का मूल्य है, उससे भी अधिक मूल्य मानव की आंतरिक विकास की ऊर्जा में ॐ का है।
वैदिक परम्परा के अनुसार ॐ शब्द 'अ+ उ+ म ' के संयोग से उत्पन्न हुवा है। ॐ के 'अ' में ब्रह्मा , 'उ' में विष्णु तथा 'म' में महेश शिव की स्थिति को स्वीकार किया गया है। ये तीनों आदि शक्तियां ॐ में समाहित हैं।
विद्यालंकार
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