ओंकार महात्म्य का वर्णन भारतीय सनातन ग्रंथों पदे- पदे अर्थात स्थान-स्थान पर हुवा है। मनुस्मृति से लेकर गो- पथ ब्राह्मण, उपनिषदों में -- कठ से लेकर अमृतनाद, अथर्व शिरा। अथर्वशिरपा, मैत्रायणी, मैत्रेय, ध्यान-बिंदु आदि कितने ही प्रधान एवं अप्रधान ग्रंथों में इसका उल्लेख हुआ है।
'श्रीमदभगवदगीता 'में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- 'गिरारम्भेम्येकं अक्षरम' अर्थात वाणी के प्रारंभ में एक अक्षर मैं ही हूँ। यजुर्वेद में 'ॐ खं ब्रह्म', शिव पुराण में -- 'शिवो वो प्रणवो ह्येष प्रणवो वा शिव: स्मृत: 'द्वारा शिव को ही प्रणव और प्रणव को ही शिव कहा गया है। अन्यत्र ' ॐ इति सर्वं ' द्वारा सम्पूर्ण जगत को ही ओममय अर्थात ईश्वरमय बताया गया है।
इस प्रकार ॐ के इस अक्षर में ही चराचर जगत और उसकी सम्पूर्ण शक्तियां अभिव्यक्त हो रही हैं। ॐ परमात्मा का ही प्रकाश और उसी का व्यक्त रूप है। इस प्रकाश - प्रेरणा को हम जितने अंशों में लोगों तक पहुंचाते हैं , समझना चाहिए उतने ही अनुपात में ॐ के तत्त्व - दर्शन को आत्मसात किया तथा आचरण में उतारा गया। हम अपनी आत्मीयता को सीमाबद्ध न रखें, उसे व्यापक और विस्तृत बनाएं -- ॐ का अकार इसी बात की प्रेरणा देता है।
ॐकार उससे आगे की गति- प्रगति का द्योतक है। जब यह विकसित होते हुवे विराट ब्रह्म में दूध -पानी की तरह घुल-मिल जाता है, तब यही मकार बन जाता है। जीवन-मुक्ति, एकत्व, अद्वैत इसे ही कहते हैं। इस प्रकार अकार से यात्रा प्रारंभ कर मनुष्य अपने को परिष्कृत और विकसित करते हुवे चलता है, तो अंतिम परिणति मकार के रूप अर्थात ईश्वर - उपलब्धि के रूप में सामने आती है।
यह प्रणव की सबसे बड़ी विशेषता है। यह प्रवृत्ति मार्ग में चलाते हुवे भी अंतत: आदमी को अंतिम लक्ष्य पर ला खड़ा कर देती है। ऐसी विशिष्टता अन्य किसी शब्द में नहीं है। हम ॐ की उपासना और जप तो करते हैं पर उसमें सन्निहित मर्म और आदर्श की अवहेलना कर देते हैं। आज की दुर्गति का यही प्रमुख कारण है। ॐ के सच्चे मर्म और आदर्श को पहचानकर एवं अपनाकर ॐ के सच्चे उपासक कहला सकते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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