इस बिंदु ने गणित-विद्या को पूर्ण बना दिया|
Hindustani संस्कृति की यह विशेषता है कि उसमें प्रतीकों, चिह्नों, आकृतियों और अक्षरों के मध्य ब्रह्माण्ड और विश्व के अनेक रहस्यों को संजोया गया है।
ओंकार भी इसी रूप में एक प्रतीक है। ओंकार देखने में जितना छोटा और नगण्य प्रतीत होता है, उतना ही बड़ी शक्ति का निरूपक है। ओंकार ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है। परिणामत: सभी मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग होता है।
ओंकार की पवित्र मनोदशा में सम्पन्न होने वाले अनुष्ठान और आयोजन के हर रूप में सफल और सिद्ध होने में फिर कोई संदेह नहीं रह जाता । यह 'प्रणव' से उत्पन्न देवी अनुदान है। इसका मनोवैज्ञानिक लाभ यह है कि इस सम्पूर्ण काल में मन विकारग्रस्त होने से बचा रहता है।
ॐ 'अव' धातु से औणादिक 'मन' प्रत्यय के संयोग से बनता है। इसको व्युत्पन्न कहते हैं। अत: 'अव' धातु के जितने अर्थ है, उन सबका यह बोधक है। इसके प्राय: 19 अर्थ है --- कांति, तृप्ति, प्रीति, रक्षण, गति, अवगम, प्रवेश, श्रवण, स्वाम्यर्थ, याचन, क्रिया, इच्छा, दीप्ति, वाप्ति, आलिंगन, हिंसा, दान, भाग, वृद्धि आदि।
इन अर्थों को आगे यदि व्याकरण की दृष्टि से विस्तार किया जाये तो ॐ अनंतार्थ का द्योतक हो जायेगा। इन उन्नीस अर्थों में एक और नौ के अंक उपस्थित हैं।
गणितज्ञ इससे पूरी तरह परिचित हैं कि एक का अंक अपने में पूर्ण स्वतंत्र है, अत: इसकी सत्ता का सद्भाव सभी अंकों में विद्यमान है। नौ का अंक स्वतंत्र तो नहीं, किन्तु पूर्ण अवश्य है। पूर्ण वह है, जो अपने में न्यूनता न आने दे। यही कारण है कि संख्या एक से प्रारंभ होकर नौ पर समाप्त हो जाती है। शेष सब इन्हीं अंकों का विस्तार मात्र ही है।
एक का अंक सूक्ष्म है, शेष सब स्थूल हैं। सूक्ष्म का समावेश स्थूल में हो सकता है, पर स्थूल का समावेश सूक्ष्म में नहीं हो सकता। नौ की संख्या पूर्ण है, यही कारण है कि इसके आगे संख्या का विधान नहीं है। नौ अंक की व्यवस्था अन्यों से कुछ भिन्न है।
जब एक का अंक इसमें संयुक्त होने के लिए समीप आता है, तो वह वृद्धि को न प्राप्त कर बिंदु के रूप में बदल जाता है, किन्तु अपने गौरव को नहीं घटाता। यह सदा पूर्णता का पक्षधर है, यही कारण है कि इस बिंदु ने गणित-विद्या को पूर्ण बना दिया।
नौ अंक को गुणा करने से प्राप्त अंक का योग नौ ही बना रहता है। यही इसकी पूर्णता को स्पष्ट करता है। 19 अर्थों वाली इस संख्या में एक और नौ के अंक ओंकार के इस पूर्णता-बोधक तत्त्व-दर्शन को ही अभिव्यक्त करते हैं।
ईश्वरीय-चेतना अपरिवर्तनशील है। वह वृद्धि और ह्रास से परे एकरस बनी रहती है। अस्तु, उसे अभिव्यक्त करने वाले अक्षर को भी इन गुणों से युक्त होना नितांत आवश्यक है।
व्याकरण की दृष्टि से 'उद्गीथ' ओंकार पर विचार करने से ज्ञात होता है कि ओंकार हर स्थिति में अपने मूल स्वरूप को बनाए रखता है और किसी भी दशा में परिवर्तित नहीं होता। ओंकार शब्द सर्वदा अपनी महिमा में स्थिर एवं अपरिवर्तनीय है|
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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