Published By:बजरंग लाल शर्मा

कर्म की उत्पत्ति….    

कर्म की उत्पत्ति….            

" साधो हम देख्या बड़ा तमासा,     

विश्व  देख  भया  मैं  विसमय,        

देख देख आवत मोहे हाँसा।।"                   

 एक संत किसी गांव से गुजर रहा था उसी गाँव में एक आदमी अपनी झोपड़ी पर चढ़ा हुआ था, उसके हाथ में चादर थी, वह झोपड़ी में से निकलने वाले धुएं को उस चादर से ढक रहा था। साधु उस आदमी को देखकर हंसने लगा और कहने लगा रे मूर्ख ! जिस धुंए को तुम ढकना चाहते हो, उसे तुम कभी ढक नहीं पाओगे। झोपड़ी के अंदर जाकर देखो, इस धुंए का कारण तो आग है, उसको बुझाओ।             

संत कहते हैं कर्म रूपी धुंआ जो दिखाई देता है उसको समाप्त नहीं किया जा सकता है। उसकी उत्पत्ति के स्थान को देखो कि यह कर्म कहाँ से उत्पन्न हुआ है, यह कर्म रूपी अग्नि कहां लगी हुई है। कर्म होने के पश्चात चाहे तुम कितनी ही कोशिश कर लो उसके फल को नष्ट नहीं कर सकते ।                

कर्म की उत्पत्ति चित्त की वृत्तियों से होती है। चित्त की वृत्तियाँ तीन गुणों (सत, रज, तम) से निर्मित होती हैं, इसी को ही संस्कार कहते हैं। ये वृत्तियाँ सदा एक समान नहीं रहती हैं, बदलती रहती हैं। ये तीन गुण कभी समाप्त नहीं होते हैं क्योंकि इस शरीर की रचना ही तीन गुणों से हुई है। जब तक तीन गुण रहेंगे तब तक कर्म तथा विचारों की उत्पत्ति होती रहेगी।                

इस संसार में जीव के आवागमन का कारण कर्म ही है। सभी जीव इस कर्म के बंधन में बंधे हुए हैं। कर्म के बिना कोई रह नहीं सकता है। अच्छे या बुरे कर्मो का कारण तीन गुण हैं तथा इन गुणों के अनुपात में परिवर्तन का कारण भी स्वयं कर्म  ही है। इस प्रकार कर्म ने ही गुणों को तथा जीव को बांध रखा है।      

" कोई कहे याको कर्म करता, सब बंधे आवे जावे।        

तीनों गुण भी कर्में बांधे,फेर फेर  फेरे खावे।। "

बजरंगलाल शर्मा

 

धर्म जगत

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