Published By:धर्म पुराण डेस्क

परम भागवत यमराज

विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से भगवान सूर्य के यमराज जी, श्राद्धदेव मनु और यमुना जी हुईं। यमराज परम भागवत, द्वादश भागवताचार्य में हैं। ये जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का निर्माण हैं। दक्षिण दिशा के इन लोकपाल की संयमनीपुरी समस्त प्राणियों के लिये, जो अशुभकर्मा हैं,

बड़ी भयप्रद है। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूत अक्षय, औदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त- इन चतुर्दश नामों से इन महिष वाहन दण्डधर की आराधना होती है। इन्हीं नामों से इनका तर्पण किया जाता है।

चार द्वारों, सात तोरणों तथा पुष्पोदका, वैवस्वता आदि सुरम्य नदियों से पूर्ण अपनी पूरी में पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर के द्वार से प्रविष्ट होने वाले पुण्यात्मा पुरुषों को यमराज शंख-चक्र-गदा-पद्म धारी, चतुर्भुज, नीलाभ भगवान् विष्णु के रूप में अपने महाप्रसाद में रत्नासन पर दर्शन देते हैं। दक्षिण-द्वार से प्रवेश करने वाले पापियों को वह तप्त लौह द्वार तथा पूय, शोणित एवं क्रूर पशुओं से पूर्ण वैतरणी नदी पार करने पर प्राप्त होते हैं। द्वार से भीतर आने पर वे अत्यंत विस्तीर्ण सरोवर के समान नेत्र वाले, धूम्रवर्ण, प्रलय-मेघ के समान गर्जन करने वाले, ज्वालामय रामधारी, बड़े तीक्ष्ण प्रज्वलित दांतयुक्त, सँडसी-जैसे नखों वाले, चर्म वस्त्रधारी, कुटिल-भृकुटि, भयंकर वेश में यमराज को देखते हैं। वहाँ मूर्तिमान् व्याधियाँ, घोरत पशु तथा यमदूत उपस्थित मिलते हैं।

दीपावली से पूर्व यमदीप देकर तथा दूसरे पर्व पर यमराज की आराधना करके मनुष्य उनकी कृपा का । संपादन करता है। ये निर्णेता हमसे सदा शुभ कर्म की आशा करते हैं। दण्ड के द्वारा जीव को शुद्ध करना ही इनके लोक का मुख्य कार्य है।

 

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