ज्ञान त्रिविध - अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत होता है। यही त्रिपथगा गंगा है। इसी में सभी प्रकार का ज्ञान समाहित है। इसी ज्ञानमयी विद्या का नाम सरस्वती है। यह विद्या पवित्र करने वाली है, शरीर, मन और बुद्धि की शुद्धता इसी विद्या से प्राप्त होती है।
विद्या अन्न देने वाली तथा भरण-पोषण करने वाली है। पोषण करने के कारण यह बल देने वाली भी है। विद्या से बुद्धि का विकास होता है तथा बुद्धि-विकास से जो कर्म किए जाते हैं, वे उत्तम कर्म होते हैं। इन उत्तम कर्मों के माध्यम से यही विद्या धन भी प्रदान करती है। सत्य द्वारा उत्पन्न होने वाले विशेष महत्वपूर्ण कर्मों की प्रेरणा भी इसी विद्या से मिलती है।
यह विद्या ज्ञान का प्रसार करने के कारण कर्मों के महासागर को ज्ञानी के सामने स्पष्ट कर देती है। वैदिक ऋषियों ने ऐसी जीवन व्यापिनी विद्या का अर्जन करना जीवन का महत्वपूर्ण कर्तव्य माना। इन्हीं सारी बातों को ध्यान में रख कर इस कार्य को अपने अधिकार में रखा। विद्या-दान का कार्य वे ही करते थे, जो स्वयं आचार्य एवं विद्वान् होते थे। पात्र ही विद्या ग्रहण करते थे।
आचार्य और शिष्य दोनों में असाधारणता का रहना आवश्यक था, और जिस वातावरण में यह ज्ञान-यज्ञ अनवरत रूप से होता था; वह आचार्य का आश्रम कोलाहल से दूर, वन की गोद में अत्यंत शांत वातावरण में होता था। वैदिक भाषा में वन और वानप्रस्थ का अत्यधिक महत्व है।
अंग्रेजी में यह निंदा वाचक 'जंगली' के रूप में है। हमारी संस्कृति में 'वनवासी' शब्द अत्यंत गौरवपूर्ण अर्थ ग्रहण करता है। वैदिक सभ्यता का विकास और संरक्षण वनवासी ऋषियों, विचारकों एवं आचार्यों से होता रहा है। प्रणव का प्रथम घोष किसी वन-प्रदेश में ही हुआ होगा। ज्ञान-गंगा की अनेक सतत धाराएं शांत मनोरम वन-प्रदेश से ही विस्तारित हुई होंगी।
वैदिक शिक्षा-पद्धति का मूल तत्त्व शिष्यों का आचार्य-कुल में रहकर ज्ञान प्राप्त करना था। वहां सभी के साथ एक समान व्यवहार किया जाता था, चाहे राजकुमार हो या सामान्य व्यक्ति। 'विद्याधिगमे षट्तीर्थानि' अर्थात शिक्षा प्राप्त करने के छ: अधिकारी थे - शिष्य, वेदाध्यायी, धारणा-शक्ति सम्पन्न व्यक्ति, धन द्वारा आश्रम का संरक्षण करने वाला, पुत्र तथा एक विद्या सीख कर दूसरी विद्या सीखने वाला।
आचार्य और आश्रम की सेवा करना भी विद्यार्थी का कर्तव्य होता था, आचार्य की भिक्षा लाना, अग्नि-परिचर्या, घर का काम, गौ-सेवा, यज्ञ की समिधा लाना आदि। आचार्य उपनयन-संस्कार करके एक नये जीवन में ब्रह्मचारी का प्रवेश कराता है, इसे नया जन्म कहते हैं, इसी जन्म के कारण ही वह द्विज कहलाता है। यह माता-पिता से मिले हुए स्थूल शरीर से भिन्न होता है। ज्ञान और चेतना की गोद में पुनर्जन्म होता है और अंत में मुक्ति की शांति में जब हम प्रवेश करते हैं तो शाश्वत सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्म, जरा, रोग, सुख-दुःख, लाभ-हानि, मरण आदि सबसे ऊपर होता है।
विद्यार्थी तेज, वीर्य, बल, ओजस्विता, मन्यु और प्रतिकूलताओं पर विजय पाने के लिए समर्थ-शक्ति प्राप्त करने की प्रार्थना करता था। क्योंकि जीवन को विकसित और उन्नत बनाने के लिए उपर्युक्त गुणों की पर्याप्त आवश्यकता मानी गयी है। इन उदात्त भावनाओं को जीवन में आचरित करने के लिए विद्यार्थी आचार्य-कुल में जाते थे। साथ ही वे ब्रह्मचर्य आदि द्वारा आत्म-नियंत्रण से सर्वथा योग्य बनाते थे। वे तेज, बल, वीर्य, ओज आदि से संयुक्त हो गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे, इसी से समाज का ठोस गठन होता था।
भारतीयों का शिक्षा-सम्बन्धी विचार या गठन उनके जीवन-सम्बन्धी विचार और गठन के अनुरूप ही था। ऐसा नहीं था कि दोनों विरोधी दिशाओं में प्रवाहित हों। जैसा कि आधुनिक जीवन में हो रहा है कि न तो जीवन को शिक्षा स्पर्श कर पा रही है और न ही शिक्षा जीवन को प्रभावित कर पा रही है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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