Published By:धर्म पुराण डेस्क

प्राणायाम और स्वास्थ्य

स्वास्थ्य के लिए जितना योगासनों का महत्व है, उतना ही प्राणायाम का भी महत्व है। योगासनों से शरीर की शुद्धि होती है, जिससे बल एवं वीर्य की वृद्धि होती है लेकिन प्राणायाम से प्राणों की शुद्धि होती है और शरीर को अतिरिक्त ऊर्जा श्वास के द्वारा प्राप्त होती है।

प्राणायाम से मन की चंचल वृत्तियों पर नियंत्रण होता है, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य लाभ होता है। इसके नियमित अभ्यास से मन प्रसन्न रहता है, शरीर चुस्त एवं शक्तिशाली बना रहता है, चेहरे की कांति बढ़ती है। 

भूख-प्यास पर नियंत्रण होता है और शरीर की सर्दी-गर्मी को नियंत्रित किया जा सकता है, जिससे शरीर की असमानता से उत्पन्न होने वाले रोगों से बचा जा सकता है। पाचन क्रिया तेज होती है, बुढ़ापा देर से आती है, नाड़ी शुद्धि होती है, मोटापा में कमी आती है और प्राणायाम के द्वारा कई प्रकार के रोगों का निवारण स्वतः ही हो जाता है।

प्राणों के द्वारा ही शरीर की समस्त क्रियाओं का संपादन होता है। शरीर में पंच तत्वों का संयोग प्राण से ही होता है तथा इसी से मन, बुद्धि एवं शरीर की क्रियाएं होती हैं। मृत्यु के समय यह प्राण ही शरीर से निकलता है। प्राण शक्ति वायु में सर्वत्र व्याप्त रहती है, जिसका उपयोग मनुष्य सोस द्वारा करता है। 

मनुष्य सांस लेने की सही विधि जानकर वायु में व्याप्त प्राणों का अधिकतम उपयोग कर सकता है तथा शारीरिक, बौद्धिक एवं मानसिक क्षमताओं का विकास कर सकता है। इससे मनुष्य की सुप्त शक्तियों का जागरण होता है, जिससे वह प्रतिभासंपन्न बनता है। 

शास्त्रों में प्राण को ही आयु कहा गया। है। प्राण निकल जाने पर मनुष्य की आयु समाप्त हो जाती है। शरीर में आत्मा की क्रिया प्राणों के द्वारा ही होती है तथा इसके अभाव में आत्मा भी निष्क्रिय ही रहती है। मुर्दे में भी आत्मा होती है किंतु प्राणों के निकल जाने से वह निष्क्रिय एवं निश्चेष्ट हो जाती है और जीवात्मा का संग प्राणों के साथ होने से वह उसके साथ शरीर से निकलकर अन्यत्र गमन करती है। 

जब इन प्राणों का शरीर से संबंध-विच्छेद हो जाता है तो वह जीवात्मा अपनी समस्त क्रियाओं को समाप्त कर अपने शुद्ध स्वरूप आत्मा को प्राप्त होकर उस विश्वात्मा के साथ एकाकार हो जाती है। इसी को मोदा या निर्वाण कहा जाता है। इस प्रकार योग साधना में इस प्राण विज्ञान को समझना अत्यंत आवश्यक है। 

जिस प्रकार लकड़ी में अग्नि तत्व विद्यमान होते हुए भी ऑक्सीजन के अभाव में वह प्रकट नहीं होती है, उसी प्रकार आत्मा भी सर्वशक्ति संपन्न होते हुए भी प्राण तत्व के अभाव में निष्क्रिय ही रहती है। प्राणायाम ही एकमात्र साधन है, जिससे शरीर की समस्त क्रियाओं का सुव्यवस्थित रूप से संचालन होता है।

यह एक भिन्न तत्व है। ऑक्सीजन में प्राण तत्व है, पर वह स्वयं प्राण नहीं है। यदि ऑक्सीजन ही प्राण होता तो डॉक्टर लोग इसकी सहायता से शरीर की क्रियाओं को गतिशील रखकर उसे मृत्यु से छुटकारा दिला सकते थे लेकिन वह तत्व भिन्न प्रकार का है. जो अभी विज्ञान की पकड़ से बाहर है। 

यदि ऑक्सीजन ही प्राण होती तो मृत व्यक्ति को ऑक्सीजन देकर उसे फिर से जीवित किया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है। इसलिए यह प्राण तत्व ऑक्सीजन से भिन्न तत्व है। शरीर में स्थित प्रत्येक कोष को जीवित रखने के लिए प्राणों की आवश्यकता है, मनुष्य सांस द्वारा वायुमंडल से खींचकर हर कोष तक पहुंचाता है। इससे वह कोष जीवित रहता है।

प्राणायाम की साधना आरंभ करने से पूर्व श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं के कार्य को समझ लेने से उसमें विकृति नहीं आती है तथा आपको अपेक्षित लाभ मिलता है। वायु से प्राणों को खींचकर शरीर के हर अंग में पहुंचाने का कार्य श्वास क्रिया द्वारा होता है। तथा प्रश्वास के द्वारा शरीर की दूषित वायु को बाहर निकालने की क्रिया होती है। 

इन दोनों क्रियाओं से प्राणों का निरंतर प्रवाह होता रहता है। इनकी गति जब नियमित रहती है. तब शरीर, मन एवं बुद्धि का संतुलन बना रहता है, जो उत्तम स्वास्थ्य की निशानी है, लेकिन अनियमित गति से कभी शरीर में ऊर्जा प्रवाह बढ़ जाता है और कभी कम हो जाता है, जिससे शरीर के साथ प्राण का संतुलन बिगड़ जाने से अनेक रोगों का जन्म होता है। 

स्वस्थ मनुष्य में इनकी गति स्वाभाविक रूप से नियमित रहती है, जो प्रकृति की व्यवस्था है। सामान्य रूप से श्वास-प्रश्वास की गति एक मिनट में 15 से 17 बार होती है। वृद्धावस्था में तथा बाल्यावस्था में यह गति 20 से ऊपर भी रहती है। 

शरीर को अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होने पर यह गति बढ़ जाती है तथा आवश्यकता न होने पर यह कम हो जाती है। श्वास की गति में परिवर्तन का कारण आहार विहार, शारीरिक क्रियाएं, मानसिक तनाव, भय, क्रोध आदि भी होता है। श्वास की गति तीव्र होने से आयु कम हो जाती है तथा धीमी होने से लंबी आयु प्राप्त होती है। 

किसी भी कारण से जब इस श्वास-प्रश्वास-क्रिया में कोई विकृति आती है अर्थात् यह क्रिया स्वाभाविक क्रिया से भिन्न हो जाती है तब इससे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, जिनका इलाज कराने से मनुष्य को कोई स्थाई लाभ नहीं मिलता है।

बाबा रामदेव कहते हैं श्वास क्रिया के अनियमित होने से शरीर में कभी ताप की वृद्धि हो जाती है तथा कभी कमी हो जाती है, जिससे शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं तथा इसका प्रथम प्रभाव पाचन संस्थान एवं मानसिक संतुलन पर होता है।


 

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