Published By:धर्म पुराण डेस्क

प्रार्थना की नहीं जाती, अपितु स्वतः होती है

प्रार्थना ही प्रार्थी का स्वरूप है। प्रार्थना प्रार्थी को लक्ष्य से अभिन्न करने में समर्थ है। 

प्रार्थना वास्तविकता का आदर करने से स्वतः जागृत होती है। मृत्यु के भय से भला कौन मानव भयभीत नहीं है? अभय होने की माँग मानव मात्र में स्वभाव से विद्यमान है। 

मृत्यु के भय से रहित करने में कोई परिस्थिति हेतु नहीं है। इस कारण सभी परिस्थितियों के आश्रय तथा प्रकाश की ओर दृष्टि स्वतः जाती है। 

मानव कह बैठता है- 'कोई ऐसा होता जो मुझे अभय- दान देता।' अतः भयहारी में आस्था स्वतः होती है। आस्था की पूर्णता में ही श्रद्धा तथा विश्वास निहित है। श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भयहारी को स्वीकार कर अभय होने की तीव्र माँग ही वास्तविक प्रार्थना है।

यह सभी को विदित है कि कामनापूर्ति कर्म सापेक्ष तथा निष्कामता विवेक सिद्ध है। किंतु कर्म-सामग्री कर्ता को किसी विधान से मिली है। मिली हुई वस्तु को व्यक्तिगत मान लेना और दाता को स्वीकार न करना 'प्रमाद' है। 

इस प्रमाद की निवृत्ति आये हुए दुःख के प्रभाव से स्वतः होती है और फिर दुखी- 'हे दुःख हारी!' पुकारने लगता है। भला, इस सत्य को कौन नहीं अपनायेगा ? सुख की दासता तथा दुःख के भय के रहते हुए सभी प्रार्थी हैं। इस दृष्टि से मानव मात्र प्रार्थी हैं। 

अब विचार यह करना है कि हमारी मांग में वास्तविकता का अनादर तो नहीं है ? अर्थात विवेक विरोधी माँग तो नहीं है? दुःख के अभाव से ही सुख का प्रलोभन नाश होता है और फिर स्वतः दुःखी दुःखहारी से अभिन्न होता है। यह मङ्गलमय विधान है। 

दुःख का मूल भूल है अथवा यों कहो कि भूल मिटाने के लिए दुःख के वेष में दुःखहारी ही आते हैं और सुख के प्रलोभन को खाकर दुःख को अपनाकर योग, बोध, प्रेम से अभिन्न कर देते हैं।
 

धर्म जगत

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