Published By:धर्म पुराण डेस्क

शुद्ध अन्न से ही मन की शुद्धि, आंतरिक पवित्रता का सम्बन्ध मन, बुद्धि और आत्मा से 

पवित्रता (शौच), संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर - प्रणिधान ये पांच नियम हैं। नियम परमात्मा से मिलने के लिए सेतु का काम करते हैं। ये साधन, द्वार और अनुशासन हैं। अंतिम उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति के लिए ये नियम हैं। ये इन्द्रियों को दमित करने के लिए और जीवन को विकसित करने के लिए नियम हैं। मन का परिष्कार करने एवं परम तत्त्व से मिलने में ये नियम सहायता प्रदान करते हैं।

पवित्रता दो प्रकार की होती है-- बाहरी और भीतरी। जल-मिट्टी से शरीर की, स्वार्थ-त्याग से व्यवहार और आचरण की तथा न्याय से उपार्जित सात्विक पदार्थ के पवित्रता पूर्वक सेवन से आहार की इसे बाहरी पवित्रता कहा जाता है।

अहंकार-भाव, ममता, राग, द्वेष, ईर्ष्या, भय और काम-क्रोध आदि भीतरी दुर्गुणों के त्याग से आंतरिक पवित्रता होती है। 'शुच शौचे' अर्थात पवित्रता के आने पर परमात्मा तभी मन-मंदिर में प्रवेश करते हैं। बाहर की पवित्रता से सम्बन्ध शरीर, वस्त्र, अन्न, धन तथा पवित्र आचरण से है। जबकि है।आंतरिक पवित्रता का सम्बन्ध मन, बुद्धि और आत्मा से विशेष रूप से आंतरिक पवित्रता मन की करनी है।

शरीर की शुद्धि जल से स्नान करने से होती है। मन की शुद्धि सत्य पूर्ण आचरण से, ब्रह्म-विद्या तथा तप से जीवात्मा की शुद्धि और शास्त्र-ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि होती है। परमात्म-तत्त्व के लिए बुद्धि की निर्मलता आवश्यक है।

धन की शुद्धि दो प्रकार से होती है -- ईमानदारी से परिश्रम पूर्वक जो धन कमाया जाए, वह शुद्ध होता है। साथ ही कमाए हुए धन से पांचवाँ हिस्सा दान कर दिया जाये तो उसकी शुद्धि होती है। सभी प्रकार की पवित्रताओं में धन की पवित्रता ही मुख्य समझी जाती है। जिसका धन पवित्र है, वास्तव में वही व्यक्ति पवित्र है। 

मिट्टी से हाथ माँज लेने से या जल से स्नान कर लेने से कोई व्यक्ति पवित्र नहीं हो सकता। अपवित्र धन से खरीदे हुए अन्न से जो भोजन करता है, वह कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता। मन को शुद्ध करने के लिए शुद्ध आहार की आवश्यकता है, क्योंकि शुद्ध अन्न से ही मन की शुद्धि होती है -- "अन्नमयं सौम्य मन:" अर्थात अन्न मनोमय है, क्योंकि अन्न के सूक्ष्म भाग से मन का निर्माण होता है।

आचरण भी शुद्ध होना चाहिए। आचरण की शुद्धि महापुरुषों के आचरण के अनुसरण से होती है। क्योंकि महापुरुष जो करते हैं, वह धर्म बन जाता है। वेद जिसे करने को कहता है, वही करना चाहिए। यदि कोई आचरण लोक-मर्यादा के विरुद्ध है तो उसे भी नहीं करना चाहिए। 

कोई भी आचरण कितना भी पवित्र क्यों न हो, यदि वह लोक-मर्यादा के विपरीत है तो उसे नहीं करना चाहिए। इस प्रकार शरीर,पदार्थ, भोजन, आचरण आदि की शुद्धि बाह्य शुद्धि है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मद-मत्सर आदि से मन को खाली करना यह आंतरिक मन की शुद्धि है। आत्म-साक्षात्कार के लिए मन- मंदिर में परमात्मा को स्थापित करने के लिए दोनों शुद्धियाँ होनी चाहिए और यही शौच का अभिप्राय है।

धर्म जगत

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