Published By:धर्म पुराण डेस्क

राजर्षि भरत, जिनके नाम पर भारत देश जाना जाता है।

राजर्षि भरत

भगवान ऋषभदेव के एक सौ पुत्रों में सबसे बड़े भाई थे। उनके शासनकाल से यह भरतखण्ड या भारतवर्ष कहा जाने लगा। राजर्षि भारत माता के समान प्रभावशाली, प्रजापालक तथा शास्त्र परायण नरेश थे, यज्ञ स्वरूप भगवान की अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य, सोमयाग आदि नाना प्रकार के यज्ञों से निरन्तर उपासना में आवे लगे रहते।

राज्योपभोग का समय समाप्त हुआ। विश्वरूप की पुत्री पंचजन से उनका परिचय हुआ था। पाँच पुत्र थे उनके। राज्य के पुत्रों में यथोचित विभक्त करके आप पुलहाश्रम (हरिहर क्षेत्र) में भगवदाराधना करने चले आये।

मनका कुछ ठिकाना नहीं । चक्रवर्ती सम्राट का साम्राज्य, अनुकूल पत्नी, सुन्दर सुकुमार सद्गुणी पुत्र तथा समस्त वैभव को त्रण के समान त्याग कर काननवास किया था; पर एक हिरण में शक्ति जा अटकी । एक गर्भिणी मृगी जल पी रही थी। सिंह का घोर गर्जना सुनकर वह भयातुर भागी, गर्भ जल में गिर पड़ा। मुर्गी मर गई । नवजात शावक जल के वेग में तड़पने लगा। समीप स्नान करते भरतने देखा यह सब । दयावश वे उस मृगशिशु को उठा लाये । दया स्नेह में बदली। उस मृग के पोषण में आनंद आने लगा। मोह हो गया। सब यम-नियम धीरे-धीरे छूट गये, मृग की चिंता रहने लगी। शरीर टूटते समय भी मृग की ही चिंता थी, फलतः दूसरा जन्म मृग दोहा में हुआ।

श्रीहरि की आराधना व्यर्थ नहीं जाती। मृतदेह मिला था कालिंजर में, परन्तु वहाँ भी पूर्वजन्म की स्मृति थी । वहां से फिर पुलहाश्रम आये। सूखे पत्तों का आहार करते। हरे तृण तक न छूटे । काल-क्रम से शरीर छूटा गण्डकी नदी के पुण्य में। तीसरे जन्म में ब्राह्मण-शरीर प्राप्त हुआ।

'दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँककर पीता है।' पिता का मोह न हो जाये, अतः परम ज्ञानी भरत अपने को मूर्ख पागल की भांति देखते । लौकिक शिक्षा में उनकी कोई रुचि नहीं थी। पिता के शरीरांत के समय माता सती हो गयी। सौतेली माता के पुत्रों को उनकी चिंता नहीं थी। ये उनके या किसी के द्वारा बताये कार्य में लग जाते। जो कोई कुछ दे देता, आहार स्वीकार कर लेते। खेत की रक्षा में बैठे हुए उनको एक शूद्र के सेवक देवी को बलि देने पकड़ ले गये। इनको तो शरीर का मोह था नहीं, पर भगवान ऐसे सर्वात्म भावें पन्ना की बलि कैसे ले लें। चण्डिका ने प्रकट होकर दुष्टों का शिरश्छेदन किया । सिंधुराज के सेवक इन्हें राजा की - पालकी ढोने पकड़ ले गये। वहाँ वे सौवीर नरेश उनके उपदेशों से तत्त्वज्ञान प्राप्त कर कृतार्थ हुए।

 

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