Published By:धर्म पुराण डेस्क

राम, रामकथा और वाल्मीकि 

यूँ तो राम कथा के इतिहास में महर्षि वाल्मीकि, विश्वामित्र और वशिष्ठ जी के आश्रम चर्चित हैं, लेकिन वाल्मीकि जी के आश्रम की ख्याति का एक और कारण भी था। इस आश्रम की प्रसिद्धि के तीन मुख्य कारण हैं। यहां बैठकर महर्षि वाल्मीकि ने श्री रामचन्द्र जी के इतिहास को लिपिबद्ध किया था। 

अयोध्या नरेश श्री दशरथ और उनके सुपुत्र श्री रामचन्द्र जी के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं तथा राम वनवास, राम-रावण विवाद, रावण द्वारा सीता का अपहरण, राम द्वारा सामान्य जन का संगठन खड़ा करना और उसी संगठन के बलबूते महाशक्तिशाली रावण को पराजित करना, अयोध्या का शासन सम्भालना, इस सब को पहली बार वाल्मीकि महाराज ने ही भविष्य की पीढ़ियों के लिए समग्र रूप में संरक्षित किया।  

रामचन्द्र जी के इतिहास की अनेक घटनाओं का यह आश्रम साक्षी भी कहा जा सकता है। अयोध्या वापस आने पर रामचंद्र जी के जीवन में एक लोकोपवाद का प्रसंग उपस्थित हो गया। वह किसी प्रजाजन द्वारा सीता जी पर लगाया गया आक्षेप है। रामचंद्र जी के सामने संकट उपस्थित हो गया है। शायद सीता अपहरण से भी बड़ा संकट। उन्हें सीता पर संदेह नहीं है। लेकिन प्रश्न सीता का तो है ही नहीं, यहां प्रश्न प्रजा का है। आक्षेप लगाने वाला राज्य की प्रजा में से है। आज की शब्दावली में कहें तो राज्य का नागरिक ही तो था ।

यहाँ रामचंद्र जी के सामने अनेक विकल्प मौजूद थे। सबसे पहला विकल्प तो अंग्रेजी भाषा में कहें तो इग्नोर करने का है। अनेक लोग कुछ भी कहते रहते हैं। दूसरा विकल्प निराधार लांछन लगाने के आरोप में दोषी को दंड देने का है। इसके विपरीत रामचंद्र जी ने राज्य व्यवस्था का एक नया सूत्र दिया। 

राज की व्यवस्था चाहे लोकतंत्र की हो, कुलीन तंत्र की हो या फिर राजतंत्र की ही क्यों न हो, राज तो लोकलाज से चलता है। यह किसी भी राज्य व्यवस्था का आदर्श या चरम बिन्दु कहा जा सकता है। इस चरम बिन्दु को व्यावहारिक रूप में धारण करना कितना मुश्किल है, वही क्षण रामचन्द्र जी के सामने उपस्थित हो गया था। 

यह परीक्षा की घड़ी थी। रामचन्द्र जी इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। उन्होंने सीता का त्याग कर दिया, शायद सीता भी जानती थी कि यह राजा या शासक होने का रामचन्द्र द्वारा स्वयं को दिया गया दंड ही है। राज सिंहासन यदि प्रजा द्वारा दिया गया पुरस्कार है तो प्रजा द्वारा दिया गया यह दंड भी राजा को स्वीकार करना होगा। राजसिंहासन कांटों का ताज है। राजा यह ताज इसलिए धारण करता है ताकि प्रजा का मार्ग कंटक मुक्त हो जाए। 

राम को जब उनके पिता ने वनवास दे दिया था, तब राम जी ने उफ तक नहीं की थी और अब जब सीता को वनवास मिल रहा था तो भी उन्होंने उफ नहीं की। राम भविष्य के शासकों के लिए राजधर्म के मानदंड निर्धारित कर रहे थे। राज लोकलाज से चलता है। रामचन्द्र जी  के इतिहास का यह दूसरा हिस्सा है। रामचन्द्र जी स्वयं अयोध्या में हैं, लेकिन उनकी धर्मपत्नी वाल्मीकि के आश्रम में आ गई हैं। इस प्रकार रामचन्द्र जी के वंश के इतिहास का यह दूसरा अध्याय महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में घटित भी हो रहा है और साथ-साथ लिपिबद्ध भी किया जा रहा है। इसके बाद महर्षि वाल्मीकि, राम जी के इतिहास के केवल लेखक न रह कर, स्वयं उसका हिस्सा बन जाते हैं।

गर्भवती सीता महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय पाती हैं। इसी आश्रम में रामचन्द्र जी के दोनों पुत्रों लव एवं कुश का लालन-पालन होता था। इस तरह ज्ञान साधना का वाल्मीकि आश्रम शस्त्र साधना का केंद्र भी बन गया था। यहां लव-कुश के साथ ही हजारों युवा शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। यहां देश की सामाजिक व्यवस्था में भी एक नया प्रयोग हो रहा था। अभी तक की सामाजिक व्यवस्था में जो ज्ञान अर्जित करने में रुचि रखता था, उसे शस्त्रों के प्रशिक्षण की जरूरत नहीं समझी जाती थी। जो शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त करते थे, उनका ज्ञान साधना से कोई ताल्लुक नहीं होता था। 

महर्षि वाल्मीकि भविष्य द्रष्टा थे, वे देश के भविष्य को देख रहे थे। हजारों वर्षों दूर के भविष्य को। अब वाल्मीकि जी से शस्त्र व शास्त्र की शिक्षा केवल लव-कुश ही नहीं ले रहे थे बल्कि सप्त सिन्धु क्षेत्र के लाखों युवा इस आश्रम की ओर खिंचे चले आ रहे थे। महर्षि वाल्मीकि के लिए वे सभी लव और कुश का रूप ही हो गए थे। ये लोग सभी जातियों, सभी वर्णों के थे। आज जिनको जनजाति समुदाय भी कहा जाता है, उन समुदायों के लोग भी यहां थे। वाल्मीकि आश्रम सही अर्थों में, यदि आज की शब्दावली का प्रयोग करना हो तो सामाजिक समरसता का राष्ट्रीय मंच बन गया था। 

सप्त सिन्धु क्षेत्र का ऐसा कौन सा समुदाय था जो महर्षि वाल्मीकि आश्रम की ओर खिंचा नहीं चला आ रहा था? यही कारण था कि उनके आश्रम में लव-कुश के साथ-साथ देश के हर हिस्से, विशेषकर सप्त सिन्धु क्षेत्र के युवा, एक साथ ही शस्त्र और शास्त्र की साधना कर रहे थे। ‘शस्त्रे शास्त्रे च कौशलम्’ का पहला उदाहरण भी सप्त सिन्धु क्षेत्र का यह वाल्मीकि समाज ही कहा जा सकता है। 

राम जी के इतिहास का पहला कालखंड आश्रमों से ही जुड़ा हुआ था। वशिष्ठ ऋषि का आश्रम, विश्वामित्र का आश्रम। इससे इतर वाल्मीकि महाराज के आश्रम की महत्ता इसलिए थी कि वे केवल श्री रामचन्द्र जी की संतान को ही नहीं बल्कि सामान्य युवा को भी उनके साथ ही प्रशिक्षित करके इस यात्रा के सनातन प्रवाह को आगे बढ़ा रहे थे। साथ ही यही उनके आश्रम की ख्याति का तीसरा कारण था। वे नए वाल्मीकि समाज की रचना कर रहे थे। उसे आकार दे रहे थे।

वाल्मीकि आश्रम में सभी जातियों के श्रद्धालुओं की अलग-अलग जातिगत पहचान समाप्त होकर एक नई पहचान उभर रही थी। महर्षि वाल्मीकि के शिष्य होने के नाते ये सभी अब वाल्मीकि हो गए। इसलिए ये वाल्मीकि कहे जाने लगे। सप्त सिन्धु क्षेत्र में एक नया वाल्मीकि समाज आकार ग्रहण कर रहा था। वाल्मीकि कोई जाति नहीं थी बल्कि अनेक जातियों का एक समाज था। इस समाज में जातियों का अलग स्वरूप घुल गया था। यही कारण है कि वाल्मीकि समाज में अनेक जातियों के गोत्र पाए जाते हैं। 

आज के संदर्भ में इसका साम्य तलाशना हो तो ‘राधा स्वामी’ समाज में देखा जा सकता है। राधा स्वामी केन्द्र या आश्रम में आस्था रखने वाले श्रद्धालु की एक नई पहचान बनती है। यह नई पहचान राधा स्वामी कहलाती है। राधा स्वामी कोई जाति नहीं है। राधा स्वामी समाज में अनेक जातियों के व्यक्ति हैं। दो सौ साल बाद यह जाति की पहचान राधा स्वामी पहचान में ही घुल जाएगी। उसी परिप्रेक्ष्य में वाल्मीकि समाज की पहचान को समझा जा सकता है। वाल्मीकि के आश्रम में तो एक साथ ही ज्ञान साधना, शस्त्र साधना और संगीत साधना हो रही थी। 

इसलिए सभी साधक संगीत में भी निपुण हो रहे थे। आश्रम में विद्वानों या ऋषि-मुनियों का आना-जाना लगा रहता था। लव और कुश दोनों भाई वाल्मीकि जी की आज्ञा से आश्रम में राम कथा का गायन करते। आश्रम का पूरा वाल्मीकि समाज राम कथा का गायन करता था। यह समाज राम कथा गा-गाकर राममय हो गया था। दूर-दूर से श्रोतागण इस संगीत की धारा का रसास्वादन करने के लिए पहुंचते थे। एक ऐसा वाल्मीकि समाज आकार ग्रहण कर रहा था जिसमें चारों वर्णों की योग्यता समाहित थी। वाल्मीकि समाज और राम कथा एकाकार हो गई थी। राम कथा के इतिहास की एक जड़ सप्त सिन्धु क्षेत्र में भी थी और निरंतर है।

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