Published By:धर्म पुराण डेस्क

रामचरितमानस ब्रह्म और माया, क्या संसार तमाशा है, ब्रह्म को कैसे जाना जा सकता है..

रामचरितमानस ब्रह्म और माया, क्या संसार तमाशा है, ब्रह्म को कैसे जाना जा सकता है..

ब्रह्म को कौन जान सकता है, ब्रह्म क्या है, ब्रह्म कौन है, ईश्वर और माया, जगत और ब्रह्मा. सत्य और असत्य.

रामचरितमानस में उस पर ब्रह्म की चर्चा की गई है वह परम ब्रह्म माया के पार है, पर ब्रह्म ब्रह्मा विष्णु महेश के भी ऊपर है।

धर्म पुराण में आज हम मानस के संदर्भ में संसार और ब्रह्म परब्रह्म के बारे में चर्चा करेंगे।

जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे । बिधि हरि संभु नचावनिहारे ॥ 1 ॥ 

तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। और तुम्हहिं को जाननिहारा ॥ 2 ॥ 

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ॥ 3 ॥ 

तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिं रघुनंदन जानहिं भगतउरचंदन ॥ 4 ॥

अर्थ संसार तमाशा है। आप उसे देखने वाले हैं। ब्रह्मा-विष्णु-महेश नचाने वाले हैं ॥1॥ 

वे भी आपका मर्म नहीं जानते; तब और कौन आपको जानने वाला हो सकता है ॥2॥ 

वही जानता है जिसे आप बना दें। आपको जानते ही वह आपका या आपका स्वरूप वा आप ही (ब्रह्म) हो जाता है ॥ 3 ॥ 

हे रघुनन्दन हे भक्तों के हृदय को शीतल, आह्लादित और सुवासित करने के लिये चन्दन रूप! आपकी कृपा से ही भक्त आपको जानते हैं ॥ 4 ॥

 यहाँ कठपुतली के तमाशे से रूपक बाँधा गया है। इस खेल में कठपुतली को नचाने वाला या तार, कठपुतली और देखने वाले चाहिये; वे सब निम्न टिप्पणियों से स्पष्ट हो जायेंगे।

'जगु पेखन' इति । (क) जग दृश्य है, आप द्रष्टा हैं। जग मायिक है, पंचतत्त्वमय है, जड है। आप मायिक गुणों से परे हैं। इसी से आप देखते हैं, जगत् आपको नहीं देख पाता। जीव चाहे विधि, हरि, हर की पदवी पा जाए तो भी नाचा ही करेगा- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।' 

(ख) जगत् तमाशा है विधि, हरि, हर नचाने वाले हैं जो रजोगुण-सत्वगुण-तमोगुण रूपी डोरी पर नचाते हैं और आप हैं। आपको रिझाने के लिये यह तमाशा करते हैं। 

(ग) तीनों को आप नचाते हैं और इनसे पृथक् सबके नियन्ता हैं।

'यद् दृष्टं तन्नष्टम्' इसके अनुसार सर्वदृश्य जगत् नश्वर है। आप द्रष्टा हैं यह कहकर बनाया कि आप नित्य हैं, अविनाशी हैं।' वै०- जगत् तमाशा है। आप नित्य धाम में बैठे हुए झरोखा मार्ग से देखने वाले हैं। ब्रह्मा-विष्णु-महेश शाके कराने वाले हैं। 

त्रिगुणात्मक त्रिवर्णा माया नटी खेल करने वाली है जिसने प्रथम मोहरूपी अंधकार की रचना की जीव उसमें भ्रमित हुआ। फिर उसने आकाशादि पंचभूत रखे जो जीव को बढ़ाने लगे। फिर उसने अनेक प्रजा, चिन्ता, शब्दादि विषय और दस इन्द्रिय रथे। 

मन रूपी पक्षी को इन्द्रियों का संगी बनाया। बस यह अब सूक्ष्म भूतों से मिलकर दसों दिशाओं में उड़ने लगा, कहीं तृप्ति नहीं होती। फिर नटी ने चौरासी योनि रूप चित्रसारी रची और कालरूप सर्प बनाया जो चित्र प्रतिमाओं को खाने लगा। इत्यादि ब्रह्मा उत्पन्न, विष्णु पालन और शम्भू संहार करते हैं। ये भी मर्म नहीं जानते।

नोट-'तेज न जानहिं 'इति। (क) यही सिद्धांत वशिष्ठजी, हनुमानजी, लक्ष्मणजी और भुशुण्डीजी आदि का है। 

यथा-विधि हरिहर संसि रवि दिमिपाला। माया जीव करम कुलि काला ॥ 

अहिप महिए जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥ 

करि विचार जिये देखतु नीकै ॥ राम रजाइ सीध सबही के ।।' (वसिष्ठ्वाक्य; २। २५४१६-८) 

सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया पाइ जासु बरन बिरचति माया। 

जाके बल बिरंचि हरि ईसा। पालत हरत सृजत दससीसा ॥ 

जा बल सीम धरे सहसानन – (हनुमद्वाक्य सुं० २३) 'राम विरोध न उबरसि सरन विष्णु अज ईस।। -(श्रीमद् लक्ष्मण वाक्य; मुं० ५६) 

तुम्हहिं आदि ग मसक प्रजंता नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता ॥ 

तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोठ पाव कि थाहा ॥ 

'ब्रह्माजी स्वयं कहते हैं कि 'सारद श्रुति सेषा विषय असेषा जा कहूँ कोड नहिं जाना।' 'पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जाने कोई।' 

(ख) 'मरम तुम्हार'-मर्म यह कि किस नाचसे आप प्रसन्न होते हैं यह कोई नहीं जानता। (पाण्डे जी) अथवा, आप कहाँ हैं, क्या करते हैं यह कोई नहीं जानता, क्योंकि इनकी दृष्टि इसी व्यापार में रहती है। 

मिलान कीजिये- 'को येत्ति भूमन् भगवन् परात्मन् योगेश्वरोती र्भवतस्त्रिलोक्याम् क्व वा कथं वा कति वा कदेति विस्तारयन क्रीडसि योगमायाम् ॥' (भा० १० । १४ २१) 

ब्रह्माजी भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं कि आप अवतार लेकर लीला करने लगते हैं तब त्रिलोकी में ऐसा कौन है जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किस लिये, कब और कितनी होती है। यह 'मर्म' शब्द का भाव है। 'सो जानइ जेहि भगत उर चंदन' इति ।

पंजाबीजी-नट जो खेल करता है उसे उसके शिष्य जानते हैं। यहाँ ब्रह्मादिक शिष्य ही नहीं जानते तो दूसरा क्या जाने? यह कहकर नाट्य की अगाधता दर्शित की। इस पर प्रश्न होता है कि 'तो फिर ज्ञान प्रतिपादक शास्त्र व्यर्थ हुए? 

उस पर कहते हैं कि 'सो जानइ जानत तुम्हहिं तुम्हड़ होड़ जाई 'तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिं रघुनंदन ।' अर्थात् आपकी कृपा से ज्ञानी और भक्त आपको जानते हैं। ज्ञानी को ज्ञान का फल यह मिलता है कि वह तुम्हारा स्वरूप हो जाता है, अभेदता हो जाती है। 

यह निर्गुण रूप कहा गया और आपके जो भक्त अधिकारी हैं ये जानते हैं। ये कैसा जानते हैं, यह 'चिदानंदमय' अगली चौपाई में कहते हैं। वे सगुण रूप को ही विकार रहित सच्चिदानन्द रूप जानते हैं, अन्य जीवों की तरह आपकी देह को जन्म-मरण आदि विकारों से युक्त नहीं मानते। यह सगुण रूप कहा।'

(क) जिसे आप जानते हैं वही जानता है और जानने पर आपका स्वरूप हो जाता है- ज्ञाती सायुज्य और भक्त सामीप्य सारूप्य होकर सेवक पद माने हुए हैं। भाव यह कि स्वरूप से या पंचमुक्ति द्वारा 'तुम्हड़ होइ जाई' कुछ यह नहीं कि उत्पत्ति-स्थिति संहार करना चाहे तो कर ले। 

(ख) जानत तुम्हहिं तुम्हड़ होइ जाई' यह ज्ञान का फल है। ज्ञानी प्रभु में मिल जाते हैं, भक्त पृथक् रहते हैं। प्रभु के स्वरूप को दोनों जानते हैं यही जानना है। दोनों जगह 'जानत' पद दिया गया। भक्त-उर-चन्दन अर्थात भक्तों की उसमें चन्दन रूप- इस कथन से भगवत् और भागवत रूप में पृथकता पायी गयी, जैसे चन्दन जिसके लगा है और चन्दन ये दोनों पृथक्-पृथक् हैं।


 

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