 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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                    - अमरकंटक के घने वन में तपस्या की एक गगन स्पर्शी मूर्ति है, जिसका नाम है बाबा रामदास।
- विंध्य और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के बीच साधनारत एक और शिखर का नाम है बाबा रामदास।
- पंचधारा में मां नर्मदा की धाराओं के बीच विराजे परम पुरुष का नाम है बाबा रामदास।
मात्र नौवीं कक्षा तक पढ़े हैं, लेकिन अनेक भाषाएं आती हैं। वे हिंदी, मराठी, तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम जैसी भारतीय भाषाओं के मर्मज्ञ तो हैं ही, अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, चाइनीज़,जैपनीज़ जैसी विदेशी भाषाएं भी उनकी वाणी और लेखनी का आभूषण हैं।
अचरज तो यह है कि उन्हें पक्षियों की भाषा आती है। वे कौओं और कोयल से संवाद करते हैं। नाग-नागिनियों की भाषा सीख रहे हैं। उनकी साधना किस ऊंचाई पर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देवताओं की भाषा सीखने के लिए वे सपने में देवलोक जाया करते हैं।
मां नर्मदा की परिक्रमा के बाद 30 साल पहले जब पंचधारा में इस स्थान पर आए थे, तब कुटिया नहीं थी। 120 दिन तक मां नर्मदा के जल पर जीवित रहकर साधनारत थे।
बारिश के दिनों में जब यज्ञ करते थे, तब मेघों की इतनी हिम्मत नहीं थी कि इनके यज्ञ कुंड के आसपास आकर बरस जाएं। चारों ओर पुरज़ोर वर्षा होती थी और इनके यज्ञ की अग्नि प्रज्ज्वलित रहती थी।
बाबा रामदास की साधना स्थली का नाम ज्ञानेश्वरी है और ये ज्ञानेश्वरी के उपासक हैं। मां नर्मदा की परिक्रमा के दौरान आपके दर्शन हुए। फिर उनसे ऐसी लगन लगी, उनके वचन सुनने की ऐसी प्यास जगी कि जब-तब वहां जाने लगा। उनकी शरण में उस स्थल पर रात्रि विश्राम किया।
यकीन मानिए, इतना जाग्रत स्थल है कि नींद आ ही नहीं सकती। बाबा रामदास कब सोते हैं, कब जागते हैं, पता ही नहीं चलता। जब भी देखें, साधना की मुद्रा में ही रहते हैं। किसी अजपा जप में, देवलोक की किसी यात्रा में।
बीच-बीच में उनके साथ जो कुछ वार्तालाप हुआ है, आपके साथ बाँटते हैं। संतों के वचन जीवन को सुधारने के लिए हैं, संदेह करने के लिए नहीं, इसलिए कृपया इसे इसी भाव से ग्रहण करें।
आप कभी अगर बाबा रामदास जी से मिलने आए तो उनकी साधना में विघ्न न डालें। मां नर्मदा की गोद में बैठे इस संत के दर्शन करें, इनसे जीवन और अध्यात्म के मंत्र सीखे, इनकी एकांत साधना को महसूस करें और इनका प्रकृति के साथ तादात्म्य देखें।
काम, क्रोध और लोभ- ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। वास्तव में एक काम के ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि को महत्व देने से पैदा होते हैं। काम अर्थात कामना की दो तरह की क्रियाएं होती हैं— इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति । इनमें से इष्ट की प्राप्ति भी दो तरह की होती है- संग्रह करना और सुख भोगना ।
संग्रह की इच्छा का नाम 'लोभ' है और सुखभोग की इच्छा का नाम 'काम' है। अनिष्ट की निवृत्ति में बाधा पड़ने पर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगों की, संग्रह की प्राप्ति में बाधा देने वालों पर अथवा हमारा अनिष्ट करने वालों पर, हमारे शरीर का नाश करने वालों पर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करने वालों का नाश करने की क्रिया होती है।
इससे सिद्ध हुआ कि युद्ध में मनुष्य की दो तरह से ही प्रवृत्ति होती है- अनिष्ट की निवृत्ति के लिये अर्थात अपने 'क्रोध' को सफल बनाने के लिये और इष्ट की प्राप्ति के लिये अर्थात 'लोभ' की पूर्ति के लिये ।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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