 Published By:अतुल विनोद
 Published By:अतुल विनोद
					 
					
                    
ध्यान का वास्तविक स्वरूप, अंतर्मौन और ध्यान हम मन को तभी जान सकते हैं जब अपने भीतर मौन में जा सकें| अपने अंदर गहरे स्तर पर प्रशांत अवस्था को अंतर्मौन कहा जाता है| हम सब यदि ऊंचाइयों तक जाना चाहे तो उसका एक ही रास्ता है वह है अंतर्मौन| प्रशांत अवस्था के बिना ध्यान का कोई अर्थ नहीं है| अंतर्मौन से हमें अपने अंदर की दैवीय वाणी सुनाई देती है| और यहीं से खुलता है अंतर प्रकाश का रास्ता| मन की प्रक्रिया से ऊपर उठकर ही ध्यान में प्रवेश किया जा सकता है| मन की प्रक्रिया से ऊपर उठने के लिए उसकी गतिविधि से हटाना जरूरी है| मन अपना काम करता रहेगा हमें ना तो उसके साथ सहयोग करना है ना ही उसका विरोध करना है| ध्यान कोई एक्सरसाइज नहीं है ना ही मन को कंट्रोल करने की कोई प्रक्रिया| ना ही ध्यान एकाग्रता या धारणा है| अंतर्मौन मन के भी पार चले जाना| मन एक तरफ हो जाता है और हम अपने अंदर मौजूद परलोक में प्रवेश कर जाते हैं| हम सोचते हैं की परलोक कहीं और है| लेकिन परलोक भी हमारे अंदर ही है| लेकिन हमारे अंदर का यह लोग हमें तब दिखाई देता है जब हमारी आत्मा मन से अलग नीरवता और प्रशांति में स्थित हो जाती है| या फिर मन ही मौन हो जाता है| मन को मौन करने के लिए संसार के कार्य व्यवहार से धीरे-धीरे हटना होता है| या फिर संसार के कार्य व्यवहार के साथ ही उसके साथ निर्लिप्त होने का अभ्यास करना पड़ता है| ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर| नहीं किसी से लगाव ना ही किसी से दुश्मनी| जब योग के अभ्यास से अंतर चेतना जागृत हो जाती है तो धीरे-धीरे मन को निस्तब्ध कर देती है| तब चिंतन, स्मरण और एकाग्रता की शक्ति फिर से स्थापित हो जाती है| मन खाली हो जाता है शांति उसे भर देती है| बेफिजूल के विचार उलझन भ्रम दूर हो जाते हैं| कला संघर्ष और अधीरता व्याकुलता से हम मुक्त हो जाते हैं| संसार विलुप्त हो जाता है दिव्यता और आनंद प्राप्त होने लगता है| सुशांत मन एक सार्थक और सुखी जीवन के लिए हमें सक्षम बना देता है|
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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