समाज में जब पैसे की कीमत बढ़ती है तो इंसान की कीमत घटती है। साथ ही बंदूक की ताकत बढने लगती है।
आज ऐसा समूचे विश्व में हो रहा है। हिंसा और युवा-मानसिकता विषय पर गठित अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों जो अपनी अध्ययन रिपोर्ट प्रस्तुत की है, वह अत्यधिक आश्चर्यचकित कर देने वाली है। इसके अनुसार अमेरिकी विद्यालयों में हर साल हिंसक अपराध और चोरी की तीस लाख घटनाएँ घटित होती हैं।
भारत में भी पिछले कुछ वर्षों से युवा मानसिकता जिस तेजी के साथ अपराधों और हिंसक घटनाओं की ओर बढ़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि युवा- समाज विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है।
आज प्राथमिक आवश्यकताओं में- मौज मस्ती, पिकनिक, मनोरंजन और अधिक से अधिक सुविधावादी दृष्टिकोण हो गया है। युवा पीढ़ी के इस पतन का प्रमुख कारण उपभोग - केन्द्रित जीवन की व्यवस्था है। अधिक से अधिक भोग और सुविधा की लालसा ने सामाजिक सम्बन्धों का अतिक्रमण किया है।
संवेदनाओं को शुष्क बना दिया है। आधुनिक विकास-बोध ने इच्छाओं को जिस तरह विस्तारित किया है, उसने मानवता की धरती पर अपराधों के रक्त-बीज बोये हैं। पश्चिमी समाज की संरचना जिस दायित्वहीनता के आधार पर हुयी है, उसके अंतर्गत हर रिश्ता एक कमोडिटी अर्थात वस्तुरूप हो गया है।
कोई किसी के प्रति जिम्मेदारी नहीं अनुभव करता। सर्वत्र बाजार या अर्थ का गणित एवं आर्थिक प्रतिबद्धता है। आज टी.वी.संस्कृति का विकास घनघोर रूप में हो रहा है। अधिक समय तक टी.वी.देखने से बच्चे एकांकी अकेले होते जा रहे है, साथ ही उनका बौद्धिक विकास भी अवरुद्ध होता जा रहा है। उनकी प्रतिभा का स्तर भी गिरता जा रहा है। उनकी कल्पना-शक्ति भी क्षीण होती जा रही है। बच्चों की संवेदनाएं क्षीण होती जाती है। उनके मन - मस्तिष्क अत्यधिक बुरा प्रभाव पड़ता है।
प्रेम करुणा, सहिष्णुता जैसे मानवीय मूल्य लुप्त होते जा रहे हैं। आत्मानुशासन और स्व-नियंत्रण की क्षमता जगाये बिना, न विभिन्न भाषाओं का ज्ञान त्राण बन पाता है; न अनेक विद्या - शाखाओं का अध्ययन। आत्म -विद्या और सदाचार ही ऐसे सशक्त उपक्रम हैं , जिनके माध्यम से हिंसा और अपराधों के रक्तबीज अस्तित्वहीन हो सकते हैं. संयम, करुणा, सहानुभूति और सहअस्तित्व के संस्कार - बीज पल्लवित हो सकते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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