धर्म और संस्कृति में इतना ही भेद है कि धर्म केवल शास्त्रैकसमधिगम्य है और संस्कृति में शास्त्र से अनिरुद्ध लौकिक कर्म भी परिगणित हो सकता है।
युद्ध-भोजनादि में लौकिकता, अलौकिकता दोनों ही हैं। जितना अंश लोकप्रसिद्ध है, उतना लौकिक हैं; जितना शास्त्रैकसमधिगम्य है, उतना अलौकिक है। अलौकिक अंश धर्म है, धर्माविरुद्ध लौकिक अंश धर्म्य है। संस्कृत में दोनों का अन्तर्भाव है।
संस्कृति का आधार:
एक परिभाषा, लक्षण एवं आधार स्वीकृत किये बिना संस्कृति क्या है - यह समझ में नहीं आ सकता। ऊपर दिखलाया जा चुका है कि संस्कृति का लक्ष्य आत्मा का उत्थान है। जिसके द्वारा इसका मार्ग बतलाया जाय, वही संस्कृति का आधार हो सकता है।
यह विभिन्न जातियों के धर्म ग्रंथों द्वारा ही बतलाया जाता है। उनके अतिरिक्त किन्हीं भी चेष्टाओं की भूषणता-दूषणता, सम्यक्ता या असम्यक्ता का निर्णायक या कसौटी और हो ही क्या सकता है। यद्यपि सामान्य रूप से भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के धर्म ग्रंथों के आधार पर विभिन्न संस्कृतियाँ निर्णीत होती हैं, तथापि अनादि, अपौरुषेय ग्रन्थ वेद ही हैं।
अतः वेद एवं वेदांनुसार आर्ष धर्मग्रंथों के अनुकूल लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय एवं निः श्रेयसोपयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिंदू संस्कृति, वैदिक संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति है। सनातन परमात्मा ने अपने अंशभूत सनातन जीवात्माओं को सनातन अभ्युदय एवं निःश्रेयस परमपद प्राप्त कराने के लिये जिस सनातन मार्ग का निर्देश दिया है, तदनुकूल संस्कृति ही सनातन वैदिक संस्कृति है और वह वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति ही सम्पूर्ण संस्कृतियों की जननी है।
डेढ़-दो हजार वर्षों की अर्वाचीन विभिन्न संस्कृतियाँ भी इसी सनातन संस्कृति के कतिपय अंशों को लेकर उद्भूत हुई हैं। यही कारण है कि विभिन्न देशों की विभिन्न संस्कृतियों में वैदिक संस्कृति के विकृत एवं अविकृत अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। उसी सनातन संस्कृति का पूजक हिंदू है। जैसे इस्लाम-संस्कृति और मुस्लिम जाति का आधार 'कुरान' है, वैसे ही वैदिक सनातन संस्कृति एवं हिंदू-जाति का आधार वेद एवं तदनुसारी आर्ष धर्मग्रन्थ हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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