Published By:दिनेश मालवीय

हिन्दू धर्म में पति और पत्नी के अधिकार और कर्तव्य.. दिनेश मालवीय

हिन्दू धर्म में पति और पत्नी के अधिकार और कर्तव्य.. दिनेश मालवीय

 

हिन्दू धर्म में विवाह अग्नि की साक्षी में किया जाता है. सनातन धर्म में अग्नि को परम पवित्र और ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता है. विवाह के समय अग्नि के समक्ष जो प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, वे जीवन में सुख और समृद्धि का मूल हैं. आज जो विवाह अधिक नहीं टिक रहे और अदालतों में तलक के बहुत मामले आ रहे हैं, उसके पीछे यह बहुत बड़ा कारण है, कि हमने विवाह को गंभीरता से लेना कम कर दिया है. बहरहाल, आजकल देखा यह जा रहा है, कि विवाह के समय वर और वधू दोनों अग्नि के समक्ष ली जाने वाली शपथों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते. वे इसे एक औपचारिकता ही मानकर चलते हैं. आजकल तो विवाह करवाने वाले पंडित इन शपथों को बहुत स्पष्ट हिन्दी भाषा में भी समझाते हैं. लेकिन इसकी तरफ वे बहुत ध्यान नहीं दिया जाता. यह स्थिति बदलनी चाहिए, तब ही हिन्दू परिवारों में पहले जैसी समन्वय की स्थिति बन पाएगी. हमारे धर्म में पति-पत्नी के संबंध को  बहुत पवित्र माना गया है. इसमें ऊंचे-नीचे का भेद नहीं है. इस विषय में कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है.


 

विभिन्न धर्मों और पंथों में पति-पत्नी के सम्बंध का अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं और रीति-रिवाज़ों के आधार पर किया गया है. किसी धर्म में शादी एक क़रार है तो किसी धर्म में कुछ और तरह की मान्यताएँ हैं. सनातन धर्म में विवाह को जीवन के सोलह संस्कारों में सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र संस्कार माना गया है. हिन्दू धर्म में पति और पत्नी के कर्तव्यों का बहुत सुस्पष्ट निरधारण है. दोनों के बीच क्या संबंध है, दोनों का गृहस्थ में क्या स्थान है, एक-दूसरे पर क्या अधिकार है, इस विषय पर बहुत सुविचारित तरह से निर्णय लिए गए हैं. विवाह की पद्धतियों में स्थानीय और आंचलिक स्थितियों के आधार पर भेद भले ही रहे हैं, लेकिन पति-पत्नी संबंध को लेकर मान्यताएँ लगभग एक जैसी है.


 

कालांतर में परिस्थितियों के कारण पत्नी को लेकर सोच में गिरावट भले ही आई, लेकिन मूलरूप में उसका स्थान बहुत ऊँचा है. आज पारिवारिक विघटन के दौर में हमें अपने मूल दर्शन और विचार की लौटना होगा, तभी घर में सुख-शांति संभव है. इस विषय में बहुत विस्तार से चर्चा न भी करनी हो, तो विवाह के समय पढ़े जाने वाले मंत्र ही आदर्श हैं.  विवाह के बाद “सप्तपदी” होती है. इसमें वर-वधू सात पग एक साथ चलते हैं. गृहस्थियों को सुखी बनाने के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, उसका वर्णन पहले छह मंत्रों में निहित ही. सातवाँ पग उठाते समय पति कहता है-“ ओ सखा सप्तपदी भाव. अर्थात सत पग उठा लिए, अब हम आपसे में सखा हैं, मित्र हैं. सखा और मित्र में ऊँचा-नीचा या बड़ा-छोटा कोई नहीं होता. दोनों में बराबरी का संबंध होता है.  


 

वेदों में परमेश्वर को सखा कहा गया है. विवाह पर जब वर-वधू बैठते हैं, तब एक मंत्र पढ़ा जाता है, जिसका सार यह है कि-“ हम दोनों, जो आप सब विद्वतमंडली के सामने विवाह के लिए आये हैं, हमारे ह्रदय इस प्रकार मिले हैं, जैसे कि दो पानी मिलकर एकस्वरूप हो जाते हैं”. पत्नी को अपने से नीचा मानने वालों के लिए इस मंत्र को समझना ज़रूरी है. पति और पत्नी समान हैं, लेकिन गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाने के लिए उनके कुछ कर्तव्य निर्धारित हैं. वैदिक धर्म में अधिकार से अधिक कर्तव्य पर ध्यान दिया गया है. शास्त्रों में पति और पत्नी को क्रमश: राजा और मंत्री भी कहा गया है. सारा शासन मंत्री की सम्मति से होता है. लेकिन आज्ञा राजा की ही होती है. मन्त्रीको पूरा अधिकार होता है, कि वह शासन के हित-अहित का विचार कर राजा को अपनी सम्मति दे.


 

सिर्फ स्त्रियों के कर्तव्य निर्धारित नहीं हैं, पति के कर्तव्य भी तय हैं. पति का कर्तव्य है, कि वह पत्नी को संपन्न रखे, उसकी रक्षा करे, उसे किसी तरह की कमी नहीं आने दे और परिवार, समाज तथा धर्म के लिए किये जाने वाले कार्यों में पत्नी की सम्मति और सहमती ज़रूर ले. धार्मिक अनुष्ठानों में उसे बराबरी से भागीदार बनाये.  पत्नी का भी कर्तव्य है, कि वह पति के प्रति पूरी तरह समर्पित रहकर उसके सुख का ध्यान रखें. उसमें कोई अवगुण भी हो, तो उसके साथ सामंजस्य बैठाकर उसे दूर करने का धैर्य के साथ प्रयास करें. पति का कर्तव्य है, कि वह जो भी धन अर्जित करे, उसे पत्नी के हाथों में सौंप दे. इस धन को किस तरह व्यय किया आना है, यह दोनों की परस्पर सहमति से तय हो. जिन घरों में ऐसा होता है, वहां कलह नहीं होती. पति को निर्देश है, कि वह सार्वजनिक रूप से कभी पत्नी से कोई ऐसी बात नहीं कहे, जो अपमानजनक हो. कहाँ-कहाँ क्या धन-सम्पत्ति और देनदारियां तथा लेनदारियां हैं, इसकी पूरी जानकारी पत्नी को दी जानी चाहिए. जहाँ पत्नी को पति के प्रति समर्पित रहने को कहा गया है, वहीं पति को भी पत्नी के प्रति एकनिष्ठ रहने का आदेश है. इस तरह आज के समय में धर्म में पति-पत्नी के सम्बन्धों का निर्वाह हो, तो कोर्ट-कचहरी की नौबत ही नहीं आये. परस्पर समझदारी दिखाते हुए, एक-दूसरे की कमियों को समझते हुए जीवन को सुखपूर्वक जिया जा सकता है.    


 

धर्म जगत

SEE MORE...........