Published By:धर्म पुराण डेस्क

ऋषभदेव और कर्म सिद्धांत

जैन संप्रदाय के प्रथम तीर्थंकर श्री 1008 जै ऋषभदेव जी का जीवन-चरित्र जैन साहित्य में ही नहीं, अपितु वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है. 

ऋग्वेद के रचयिता को भी ऋषभदेव की तेजस्विता एवं दिगंबरता का ज्ञान था तभी तो ऋग्वेद की 141 ऋचाओं में ऋषभदेव का स्तुतिपरक उल्लेख और उत्कीर्णन हुआ है जिसमें ऋषभदेव को पूर्व ज्ञान का प्रतिपादक, दुःखों का नाशक आदि कहा गया है. अतः ऋषभदेव का अस्तित्व प्राक्वैदिक सिद्ध होता है.

भागवत पुराण के 5वें स्कंध के प्रथम 6 अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन एवं तपश्चर्या का वृतांत वर्णित है। जो अधिकांश रूप में जैन पुराणों से मिलता है. 

विष्णु का अंश अवतार निरूपित करते हुए ऋषभ के विषय में भागवत पुराण में लिखा है- 'वे स्वयंभू मनु की पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम से हुए स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और ऋषभ. संन्यास के बाद वे नग्न रहने लगे. केवल शरीर मात्र ही उनके पास था. लोगों द्वारा तिरस्कार किये जाने, गाली-गलौज व मारपीट किये जाने पर भी वे मौन ही रहते थे.'

विष्णु पुराण, शिव पुराण, अग्नि पुराण, कूर्म पुराण, वायु पुराण तथा मार्कण्डेय पुराण में भी उनके मोहनीय एवं तपस्वी व्यक्तित्व को वर्णित किया गया है. ऋग्वेद में 7 वातरशना मुनियों और श्रमणों की साधना का चित्रण 1 मिलता है जिसका संबंध ऋषभ-प्रणीत जैन मुनि परंपरा से रहा है. तैत्तिरीय आरण्यक में इन्हीं वातरशना मुनियों को श्रमण और ऊर्ध्वमन्थी कहा गया है- वातरशना हवा ऋषभः श्रमणा ऊर्ध्व मन्थिनोवभूतः|

चैत बदी नवमी को ऋषभदेव का जन्म 14वें एवं अंतिम कुलकर नाभिराय और उनकी पत्नी मरुदेवी से हुआ. अपने पिता के देहावसान के पश्चात् वे इस देश अजनाभवर्ष की राजधानी अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठे और उन्होंने विश्व में सर्वप्रथम कृषि, मसि, असि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या- इन छः आजीविकाओं के साधनों की विशेष ढंग से व्यवस्था की तथा देश, प्रदेश व नगरों और वर्ण एवं जातियों का सुविभाजन किया. इनके भरत, बाहुबली आदि 100 पुत्र एवं 2 पुत्रियां - ब्राह्मी और सुंदरी थीं जिन्हें इन्होंने समस्त कलाएं एवं विद्याएं सिखाई. युवराज भरत के नाम पर इस देश का नामकरण 'भारत' किया गया.

एक दिन राजसभा में नीलांजना नामक नर्तकी की नृत्य करते समय मृत्यु हो गयी. इस घटना से ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया और वे राजभोग का परित्याग करके चैत बदी नवमी को दिगंबर मुनि की दीक्षा धारण कर तपस्या करने वन चले गये, जिनसेनाचार्य कृत 'आदिपुराण' के अनुसार, आदीश जिन ऋषभदेव ने अपने कर्मों की निर्जरा करके निर्वाण प्राप्ति माघ बदी चतुर्दशी को की थी.

ऋषभदेव ने पुरुषार्थ की शिक्षा देते हुए स्पष्टतः उद्घोष किया था कि कर्मों के बंधन से आत्मा को मुक्त करके कोई भी पुरुष निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर परमात्मा बन सकता है और मुक्त या परम आत्मा को शरीर धारण करने या किसी जीव के रूप में जन्म लेने की आवश्यकता होती ही नहीं. 

दरअसल, जीवन-मरण का चक्र ही इसीलिए जारी रहता है कि किसी-न- किसी भव में तो आत्मा कर्म रहित हो पायेगी. जिस भव(जन्म) में कर्मों से मुक्ति मिली, उसके बाद कोई भव नहीं होता. आत्मा मुक्त हो जाती है. उक्त कर्म- सिद्धांत का ज्ञान वर्तमान विश्व को सर्वप्रथम ऋषभदेव ने ही हजारों वर्ष पूर्व दिया था.

जैन मान्यता के अनुसार, कर्म का अर्थ कायिक क्रियाओं, प्रवृत्तियों एवं संस्कारों से नहीं है, अपितु कर्म भी एक पृथक सत्ता भूत पदार्थ है. जैन-दर्शन में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिंड माना गया है. 

जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण कर्म योग्य परमाणु चारों ओर से आकृष्ट हो जाते हैं। तथा राग-द्वेष आदि कषायों के कारण जीव आत्मा से चिपक जाते हैं. यही कर्म- बंध हैं. 

वैसे तो सभी क्रियाएं कर्मोपार्जन का हेतु बनती है किंतु जो क्रियाएं कषाय- युक्त होती हैं, उनसे होने वाला बंध बलवान होता है, जबकि कषाय-रहित क्रियाओं से होने वाला बंध निर्बल और अल्पायु इसे नष्ट करने में अल्प शक्ति एवं समय लगता है. इस प्रकार बंधे हुए कर्म अपना फल देने में स्वतंत्र होते हैं. उसके लिए किसी अन्य ईश्वर जैसे जज की आवश्यकता नहीं है. 

तीव्र कषायों के साथ बंधे हुए अशुभ कर्मों का फल तीव्र तथा अधिक मिलता है, जबकि मंद कषायों के साथ बंधे हुए कर्मों का फल मंद और अल्प.

कर्म-मुक्ति के उपाय हैं- संवर और निर्जरा… 

पहले तो जीव को आत्मा तक पहुंचने से कर्मों को रोकना होगा और फिर पहले से बंधे हुए कर्मों को तप द्वारा मुक्त करना होगा. कर्मों का पूर्णतः विलग होना ही मोक्ष है.

ऋषभदेव के अनुयायी जो श्रमण, व्रात्य या जैन कहलाते हैं, हजारों वर्षों से ऋषभदेव, पारसनाथ, महावीर आदि 24 तीर्थंकरों के परम स्वरूपों को आराध्य मानकर उनके दिगंबर मूर्ति प्रतिरूपों की प्रतिष्ठा कर ऋषभदेव प्रणीत पूजा-विधि (जिसे वैदिक/सनातन संप्रदाय ने कभी नहीं अपनाया) से पूजा-अर्चना-अभिषेक करते रहे हैं और स्वयं भी वैसे ही वीतरागी व परमात्मा-स्वरूप धारण कर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने की भावना.

- संजय जैन 'सम्यक्' वेद अमृत


 

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