रोम का साम्राज्य पूरे यूरोप में फैला हुआ होने के कारण रोम की सभ्यता का प्रभाव सारे यूरोप पर पड़ा इसलिए यहां पर केवल एक ही उदाहरण दिया जा सकता रहा है- रोम के मुद्रसकन लोगों के देवता ‘तितिया’ के अस्त्र का वर्णन भारत के इंद्र के वज्र जैसा ही है..!
इतिहासकारों के अनुसार बहुत से भारतीय घूमते-घूमते संसार के अनेक देशों में पहुंचे। वे स्वयं को ‘रोम’ कहते थे और उनकी भाषा रोमानी थी, परंतु यूरोप में उन्हें ‘जिप्सी’ कहा जाता था।
वे वर्तमान समय के पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि को पार कर पश्चिम की ओर निकल गए थे। वहां से ईरान और इराक होते हुए वे तुर्की पहुंचे। फारस, तौरस की पहाड़ी और कुस्तुन्तुनिया होते हुए वे यूरोप के अनेक देशों में फैल गए।
इस अवधि में वे लोग यह तो भूल गए कि वे कहां के निवासी हैं, परंतु उन्होंने अपनी भाषा, रहन-सहन के ढंग, रीति-रिवाज और व्यवसाय आदि को नहीं छोड़ा। रोम लोगों को उनके नृत्य और संगीत के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि हर एक रोम गायक और अद्भुत कलाकार होता है।
वास्तव में ईसा युग की प्रथम तीन शताब्दियों में भारत का पश्चिम के साथ लाभप्रद समुद्री व्यापार हुआ जिनमें रोम साम्राज्य प्रमुख था। रोम भारतीय सामान का सर्वोत्तम ग्राहक था। यह व्यापार दक्षिण भारत के साथ हुआ, जो कोयम्बटूर और मदुराई में मिले रोम के सिक्कों से सिद्ध होता है।
धार्मिक इतिहासकारों के अनुसार राजा विक्रमादित्य से रोम का राजा प्रतिद्वंद्विता रखता था। विक्रमादित्य को ज्योतिष और खगोल विज्ञान में बहुत रुचि थी। वराहमिहिर जैसे विद्वान उनके काल में थे। उनके प्रयासों के चलते ही आज दुनिया ने खगोल में उन्नति की।
हरिदत्त शर्मा ज्योतिष विश्वकोश के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने ही अपना दिल्ली में एक ‘ध्रुव स्तंभ’ बनवाया था जिसे आज ‘कुतुब मीनार’ कहते हैं। दरअसल, यह ध्रुव स्तंभ ‘हिन्दू (सनातन)नक्षत्र निरीक्षण केंद्र’ है।
कुतुब मीनार के आसपास दोनों पहाड़ियों के बीच से ही सूर्यास्त होता है। वराहमिहिर के अनुसार 21 जून को सूर्य ठीक इसके ऊपर से निकलता है। कुतुबुद्दीन लुटेरा तो मात्र 4 साल ही भारत में रहा और चला गया, जबकि यह कुतुब मीनार (ध्रुव स्तंभ) 2 हजार वर्ष पुराना सिद्ध किया गया है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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