एक संत नौका में बैठकर नदी पार कर रहे थे। संध्या का समय था आखिरी नाव थी, इससे उसमें बहुत भीड़ थी। सन्त एक किनारे अपनी मस्ती में बैठे थे।
दो-तीन मनचले आदमियों ने संत का मजाक उड़ाना शुरू किया। संत अपनी मौज में थे, उनका इधर ध्यान ही नहीं था। उन लोगों ने संत का ध्यान खींचने के लिये उनके समीप जाकर पहले तो शोर मचाना और गालियाँ बकना आरम्भ किया।
जब इस पर भी संत की दृष्टि नासिका के अग्रभाग से न हटी, तब वो संत को धीरे धीरे ढकेलने लगे। पास ही कुछ भले आदमी बैठे थे। उन्होंने उन बदमाशों को डांटा और संत से कहा- 'महाराज! इतनी सहनशीलता अच्छी नहीं है, आपके शरीर में काफी बल है|
आप इन बदमाशों को जरा-सा डाट देंगे तो ये सीधे हो जायेंगे।' अब संत की दृष्टि उधर गयी। उन्होंने कहा 'भैया! सहनशीलता कहां है, मैं तो असहिष्णु हैं, सहने की शक्ति तो अभी मुझमें आयी ही नहीं है।
हाँ, मैं इसका प्रतीकार अपने ढंग से कर रहा था। मैं भगवान से प्रार्थना करता था कि वे कृपा कर इनकी बुद्धि को सुधार दें, जिससे इनका हृदय निर्मल हो जाए।' सन्त की और उन भले आदमियों की बात सुनकर बदमाशों के क्रोध का पारा बहुत ऊपर चढ़ गया।
वे संत को उठाकर नदी में फेंकने को तैयार हो गये। इतने में ही आकाशवाणी हुई- 'हे संत शिरोमणि! ये बदमाश तुम्हें नदी के अथाह जल में डालकर डुबो देना चाहते हैं, तुम कहो तो इनको अभी भस्म कर दिया जाय।'
आकाशवाणी सुनकर बदमाशों के होश हवा हो गये और संत रोने लगे। संत को रोते हुए देखकर बदमाशों ने निश्चित समझ लिया कि अब यह हमलोगो को भस्म करने के लिये कहने वाले हैं। वे कांपने लगे। इसी बीच में संत ने कहा- ऐसा न करें स्वामी! मुझ तुच्छ जीव के लिये इन कई जीवों के प्राण न लिये जायें।
प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि मेरे मन में इनके विनाश की नहीं, परंतु | इनके सुधार की सच्ची आकांक्षा है तो आप इनको भस्म न करके इनके मन में बसे हुए कुविचारों और कुभावनाओं को, इनके दोषों और दुर्गुणों को तथा इनके पापों और तापों को भस्म करके इनको निर्मल हृदय और सुखी बना दीजिये।' आकाशवाणी ने कहा- 'संत शिरोमणि! ऐसा ही होगा। तुम्हारा भाव बहुत ऊँचा है। तुम हमको अत्यन्त प्यारे हो तुम्हें धन्य है।'
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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