 Published By:कमल किशोर दुबे
 Published By:कमल किशोर दुबे
					 
					
                    
तभी वहाँ से रामदीन का गुजरना हुआ। कन्छेदीलाल की नज़र उस पर पड़ी, तो रामदीन दोनों हाथ जोड़कर बोला -- "राम-राम, सरपंच साब.." । "राम-राम, रामदीन ! कैसे हो ?? अच्छा हूँ, साब..! काम तलाशने सचिव जी के पास जा रहा था। "आज सरपंचन बाईसाब ..."दिखाई नहीं दे रईं ?
कन्छेदीलाल - हाँ, वो नया पंचायत भवन बन रहा है न, रामकली ( सरपंच) वहीं मजदूरी करने गई है। वहाँ ईंट- गारे का काम चल रहा है। वह बोली - मैं भी चली जाती हूँ, रोज़ के तीन सौ रुपए, हफ्ते के दो हज़ार मिलेंगे ! रामदीन हिम्मत जुटाते हुए बोला -- पर, हमें तो सचिव जी, रोज़ के अढ़ाई सौ रुपये ही देते हैं !! हफ्ते के पंद्रह सौ ही मिलते हैं। उसमें भी एक हफ्ते काम और एक हफ्ते घर बिठाते हैं !!
कन्छेदीलाल ने हुक्का गुड़गुड़ाकर, रामदीन की तरफ करते हुए बोला - ले, हुक्का पी। अब वो गाँव की सरपंच है तो तीन सौ रुपए मिलना तो उसका हक बनता है न? तू भी कहाँ की फालतू चर्चा करने लगा। और... बताओ तुम्हारी घरवाली और बहू-बेटों को तो काम मिल रहा है न ?
रामदीन- कहाँ मिल रहा है ? पिछले हफ्ते सचिवजी ने मना कर दिया था तो वे शहर के बाहर जो फैक्टरी बन रई है न, वहीं काम करने गए हैं। कै रये थे वहाँ तीन सौ रुपए रोज मिलते हैं, पर उनका मुकादम हफ्ते में हरेक मज़दूर से सौ रुपए कमीशन काटकर देता है।
अब, क्या करें मोदीजी और मुख्यमंत्री तो सबको काम, सबके विकास की बात करते हैं, पर पंचायत सचिव और मुकादम भी ईमानदारी से काम करें तभी न? अब, आप ही बताओ पड़ोस के गाँव के सरपंच तो सब मज़दूरों को महीने में 25 दिन काम देते हैं, पर हरेक से पाँच सौ रुपैया रिश्वत लेते हैं। वे पढ़े -लिखे , ऊँची जाति के दबंग हैं।
अतः वहाँ पंचायत सचिव की नहीं चलती। पर अपने यहाँ तो सरपंचन बाई खुद ही मजदूरी कर रही हैं ! कन्छेदीलाल को रामदीन से ऐसी बातों की आशा न थी, अतः आँखें तरेरते हुए बोला - अच्छा, अच्छा, अब ज्यादा मत बोल! ला, हुक्का ला।
वह मन ही मन पड़ोसी गाँव के सरपंच की दबंगई और सब मज़दूरों से पाँच सौ रुपैया महीना की बात पर स्वयं को बेवश समझ रहे थे। काश! उनको भी ऐसे ही इनकम होती, पर रामकली मानती ही नहीं। कहती है, आज सरपंच बन गई तो का हम मँज़ूरी करना छोड़ दें ?
कल सरपंची ठाकुर के पास चली जायेगी तो हमें मजदूरी भी नईं देगा ? और.. सचिव कहता है कि 50 रुपैया रोज़ के जो मज़दूरों को कम देता है, उसमें से ब्लॉक और तहसील के बड़े-बड़े साहबों को हिस्सा देता है। उसे अपने दलित होने और कम पढ़े-लिखे होने पर भी तरस आ रहा था...!
कमल किशोर दुबे
 
 
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