आश्रम में रहने वाले बड़े से बड़े राजा के बच्चों को भी भिक्षा मांग कर खाना पड़ता था| नर्मदा परिक्रमा पर निकले गृहस्थ व्यक्ति को भी मांग कर ही अपना गुजारा करना पड़ता है| भिक्षा भारत की योग और धर्म परम्परा का हिस्सा है| जहाँ मांगना साधू, सन्यासी, योगी, पंडित और शिक्षक का धर्म है तो ज्ञान और शिक्षा का प्रचार प्रसार करने वाले को देना शिक्षार्थी का धर्म है| दक्षिणा और पेमेंट/ मजदूरी में बहुत अंतर है| समाज में कार्य करने वाले लोग चाहिये तो रिसर्च, अध्ययन, मनन-चिन्तन और योग ध्यान के ज़रिये चेतना का विस्तार करने वाले भी चाहिए|
सामाजिक संतुलन बनाये रखने, धर्म की पताका सम्भाले रखने, नित नए अनुसन्धान से मानव-जाति को उच्चता देने वाले ज्ञानी, ध्यानी को यदि अपनी जीविका चलाने के लिए नौकरी या व्यवसाय करना पड़े तो वो उसका नहीं समाज का नुक्सान है| पहले समर्थ व्यक्ति ऐसे लोगों का यथोचित सम्मान करता था, लेकिन अब लोग अपनी कमाई में से धर्म कर्म के लिए कुछ भी खर्च नही करना चाहते, इसलिए इस क्षेत्र में भी शुल्क तय हो गया| मोल भाव प्रचलित हो गया| विद्वानों, गुरु, आचार्य को दक्षिणा और पात्रों को दान देने से ही मार्ग आगे प्रशस्त होता है। दक्षिणा देने से अपने गुरु, आचार्य में श्रद्धा बढ़ती है। गुरु भी अपनी अन्य सांसारिक चिंताओं से मुक्ति पाकर शिष्य या यजमान के कल्याण के लिए और उत्साह से लग जाते हैं और अंततः सत्य से साक्षात्कार कराते हैं। इस परंपरा में भिक्षा लेने का अर्थ अपने अहंकार को नष्ट करना भी होता था| मांगने वाला भिक्षुक संत भी हो सकता है, साधू के वेश में बैठा शैतान भी, और भिखारी भी|
बिना कुछ किये वेश बनाकर बैठजाना भीख माँगना है| किसी पवित्र उद्देश्य के प्रति समर्पित भाव की पूर्ति के लिये मांगना भिक्षा है| अध्यात्मिक साधक का चोला पहनकर धन बटोरकर तिजोरियां भरना भिक्षाटन नहीं पाप है| सद्कार्य के लिए दिए जाने वाले दान, दक्षिणा और शुल्क में कृपणता, कंजूसी भी पाप है| ज्ञान के बदले दिए जाने वाले दान, दक्षिणा के हिस्से को जूते, चप्पल, कपड़े, टीवी. फ्रिज, फैशन में खर्च कर देना, "धन" का दुरूपयोग है| लगभग सभी धर्मो में कमाई का १० फीसदी दान करने की सलाह दी गयी है| ये दान कहाँ किया जाए कैसे किया जाए ये बड़ा प्रश्न है| दान ज़रूरी है लेकिन बहुत सोच समझ कर| देने वाले को कभी कंजूसी नहीं करनी चाहिए भले कोई राह चलते भीख मांगते दिखे| यदि आत्मा बोलती है तो देदो| किसी के सामने हाथ फ़ैलाने की कोई तो मजबूरी होती ही है| अध्यात्म में अहम को शून्य करने के लिए साधकों को कभी कभी "भिक्षा" का प्रयोग करना चाहिए| कमाने वाला कई बार अहंकारी हो जाता है उसे लगता है उसकी वजह से मिला .. लेकिन उसकी वजह से मिलता होता तो ठीक वही काम और उससे ज्यादा मेहनत करके दूसरा तंगी में नही होता| नहीं मिलता तो उपर वाले के सामने हम गिडगिडाते हैं, और जब मिलता है तो कहते हैं मेरी मेहनत और बुद्धि के कारण मिला| इस दुनिया में बुद्धि और मेहनत के रस्ते पर तो ज्यादातर लोग हैं| लेकिन सफलता और धन कितनों के पास है?
उपर वाले का अनुग्रह छप्पर फाड़ देता है और लेता है तो कोई तरकीब काम नही करती| अध्यात्मिक व्यक्ति भिक्षा से दान दक्षिणा से ज्यादा भी प्राप्त कर ले तब भी उसे अपरिग्रही होना चाहिए| ज़रूरत से ज्यादा मौजूद धन का सदुपयोग हो| आज अच्छे सच्चे और इमानदार लोगों के पास ज्यादा से ज्यादा धन पहुचाने की ज़रूरत है| ऐसे लोग धन से वंचित रह जाते हैं जो उसका सदुपयोग कर सकते हैं लेकिन ऐसे लोग मालामाल हो जाते हैं जो धन का दुरुपयोग करते हैं| भूखे होने के बावजूद मुँह का निवाला दूसरों को देने वाले से बड़ा कोई संत नही| और बहुत बड़ा ज्ञानी होकर भी भीख मांगने वाला ज्ञानी भिखारी नहीं| वो व्यक्ति दुर्भाग्यशाली है जिसके पास है लेकिन वो उसका सद्कार्यों के लिए दान नहीं करता| इस देश में अनेक भिक्छुक और फ़कीर हुए जिन्होंने महानता की सर्वोच्च अवस्था हासिल की| लेना और देना दोनों एक जागरूक अध्यात्मिक प्रक्रिया है इसका विज्ञान सहज समझ आ जाता है| धर्माचार्य श्रीराम शर्मा कहते हैं|
(1) यज्ञार्थाय और (2) विपद् वारणाय, इन दो कार्यों के लिये ही शास्त्रकारों ने भिक्षा का विधान किया है। इन दो कार्यों के लिये ही भिक्षा दी जानी चाहिये। यज्ञार्थाय का अर्थ है पुण्य, परोपकार, सरकार, लोक कल्याण, सुख शान्ति की वृद्धि, सात्विकता का उन्नयन। जिन कार्यों से समिष्टि की जनता की संसार में प्रभु के अभ्युदय की, अभिवृद्धि होती हो उन लोकोपयोगी कार्यों के लिये भिक्षा ली जानी चाहिये। शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, सहयोग, सुख, सुविधा बढ़ाने के कार्यं और के लिये जो प्रयत्न किये जाते हैं वे तथा मानवीय स्वभाव में सत् तत्व को- प्रेम-त्याग, उदारता, क्षमा, विवेक, धर्मपरायणता, ईश्वर, प्राणधाम, दया, उत्साह, श्रम, सेवा, संयम आदि सद्गुणों को बढ़ाने के लिये प्रयत्न किये जाते थे, इन दोनों ही प्रकार के कार्यों को अनुष्ठान को यज्ञ कहा जाता है। आजकल अनेक संस्थाएं इस प्रकार के कार्य कर रही हैं। प्राचीन समय में कुछ व्यक्ति ही जीवित संस्था के रूप में जीवन भर एक निष्ठा से काम करते थे।
स्वर्गीय भी गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु पर महात्मा गांधी ने कहा था कि विद्यार्थी जी एक संस्था थे। जिसका जीवन एक निष्ठा पूर्वक, सब प्रकार के प्रलोभनों और भयों से विमुक्त होकर यज्ञार्थ लोक सेवा के लिये-लगा रहता है वे व्यक्ति भी संस्था ही है। प्राचीन समय में ऐसे यज्ञ रूप ब्रह्म परायण व्यक्तियों को ऋषि मुनि, ब्राह्मण प्रोहित, आचार्य, योगी संन्यासी आदि नामों से पुकारते थे। जैसे संस्था की स्थापना के लिये आजकल दफ्तर कायम किये जाते हैं और इन दफ्तरों का, मकान भाड़ा खर्च करना होता है उसी प्रकार उन संस्था व्यक्तियों ऋषियों की आत्मा के रहने के मकान-उनके शरीर का मकान भाड़ा, भोजन, वस्त्र आदि का निर्वाह व्यय, खर्च करना पड़ता था। जैसे मकान भाड़े के लिये और संस्थाओं के अन्य कार्यों के लिये धन जमा किया जाता है वैसे ही दान पुण्य, भिक्षा, आदि द्वारा उन ऋषि संस्थाओं को पैसा दिया जाता था। उन ऋषियों का व्यक्तित्व, उच्च, अधिक उच्च, इतना उच्च, होता था जिसके सम्बन्ध में किसी प्रकार के संदेह की कल्पना तक उठने की गुंजाइश न होती थी, इसलिये जनता उन्हें पैसा देकर उस पैसे के सदुपयोग के सम्बन्ध में पूर्णतया निर्शित रहती थी, उसका हिसाब जांचने की आवश्यकता न समझती थी। ऋषि लोग भिक्षा द्वारा प्राप्त धन का उत्तम से उत्तम सदुपयोग स्वयं ही कर लेते थे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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