 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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पाश्चात्य देश की बात है। एक बार लॉर्ड लिटन के एक सजे-सजाये कमरे में ऊँचे दर्जे के खास-खास विद्वानों तथा विदुषियों का एक दल एकत्रित था। सभी बीसवीं सदी के विज्ञान तथा उसके आविष्कारों से परिचित थे। उनके सामने प्रसिद्ध अन्वेषिका श्रीमती वाट्स हग्स एक साधारण सितार पर राग के साथ गाना गा रही थीं।
गाने के क्रम में गायिका ने एक ऐसा राग छेड़ा कि पर्दे पर खास तरह के सितारे के रूप की आकृतियाँ नाचती-कूदती दिखाई दीं। राग के बंद होते ही आकृतियाँ भी देखते-देखते गायब हो गयीं।
फिर गायिका ने दूसरा राग छेड़ा। बात-की-बात में दूसरे प्रकार की आकृतियां सामने आयीं। राग बदलने के साथ आकृतियाँ भी बदलती गयी। कभी तारे दिख पड़ते तो कभी टेढ़ी-मेढ़ी सर्पाकार आकृतियाँ नजर आतीं।
कभी त्रिकोण- षटकोण दिखायी देते तो कभी रंग-बिरंगे फूल अपनी शोभा से मुग्ध करते। कभी भीषण आकृति वाले समुद्री जीव-जन्तु प्रकट होते तो कभी फलों-फूलों से लदे वृक्ष नजर आते। कभी एक ऐसा दृश्य दिखता, जिसमें पीछे तो अनंत नील समुद्र लहराता नजर आता। दर्शकगण चकित होकर चुपचाप देखते रहे। अन्त में, गायिका ने राग बंद किया और सब आकृतियाँ अदृश्य हो गयी।
श्रीमती वाट्स हग्स को एक बार उसी बाजे पर एक राग छेड़ते समय एक विशेष प्रकार की सर्पाकृति प्रकट होती दीख पड़ी। फिर जब-जब वे उस राग को छेड़ती, तब-तब वही आकृति प्रकट होती। इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राग और आकृति का कोई प्राकृतिक संबंध अवश्य है।
इसी प्रकार फ्रांस में दो बार इसी विषय को लेकर प्रदर्शनी और परीक्षण किये गये हैं। एक प्रदर्शनी में तो मैडम लैंग ने एक राग छेड़ा था जिसके फलस्वरूप देवी मेरी की आकृति शिशु जीसस क्राइस्ट को गोद में लिए हुए प्रकट होती दीख पड़ी थी।
दूसरी बार एक भारतीय गायक ने भैरव राग छेड़ा था, जिसके फलस्वरूप भैरव की आकृति प्रकट हुई थी। इसी प्रकार इटली में भी परीक्षण हो चुका है। एक युवती ने एक भारतीय कलाकार से सामवेद की एक ऋचा को सितार पर बजाना सीखा।
खूब अभ्यास कर लेने के अनन्तर उसने एक बार एक नदी के किनारे रेत में सितार रखकर उसी राग को छेड़ा। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ रेत पर एक चित्र-सा बन गया। उसने अन्य कई विद्वानों को यह बात बतलायी। इस पर उन्होंने उस चित्र का फोटो लिया। चित्र वीणापुस्तकधारिणी माँ सरस्वती का निकला। जब-जब वह युवती तन्मय होकर उस राग को छेड़ती, तब-तब वही चित्र बन जाता
इस प्रकार आकृति के साथ शब्द का प्राकृतिक व मनोवैज्ञानिक संबंध है। पाश्चात्य जगत तो आज इस बात को सिद्ध करता है किन्तु भारत में तो हजारों-लाखों वर्ष पूर्व इसी वैज्ञानिक आधार पर 'जपयोग' का प्रासाद निर्मित हुआ था।
सूक्ष्म तथा गहन अनुसंधान के अनन्तर प्राचीन काल में ही तपस्वी ऋषि-मुनियों को विभिन्न बीजाक्षरों का ज्ञान प्राप्त हो गया था। इन बीजाक्षरों के विधिपूर्वक जप द्वारा विभिन्न देवताओं की आराधना की जाती थी और मनचाही सिद्धि प्राप्त की जाती थी।
मनोविज्ञान के विद्वानों ने अनेक प्रकार के प्रयोग, परीक्षण, खोज और छानबीन के अनन्तर यह सिद्ध कर दिखाया है कि मनुष्य के मस्तिष्क में बार-बार जिन विचारों का उदय होता रहता वे विचार वहाँ अंकित हो जाते हैं। उसी प्रकार के भाव मस्तिष्क में घर बना लेते हैं।
फल यह होता है कि उसी प्रकार के विचार मस्तिष्क में बराबर चक्कर लगाया करते हैं। उनके मन का इतना लगाव हो जाता है कि उन्हीं में वह आनंद प्राप्त करता है, उन्हीं में मगन रहने लगता है। ऐसी दशा में दूसरे प्रकार के अच्छे-से-अच्छे विचार और हितकर-से-हितकर भाव मन को नहीं रुकता। वह उनसे जल्दी ही ऊब जाता है, भागने लगता है और अपने पुराने विचारों के बीच जाकर शरण लेता है।
 
 
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