Published By:धर्म पुराण डेस्क

शास्त्रविहित कर्म ही धर्म

 जैसे शूद्र के लिये वेद-पाठ अधर्म है और ब्राह्मण के लिये वेद-त्याग। लौकिक दृष्टि से जैसे एक औषधि रोगी के लिये उपयोगी है और स्वास्थ के लिये हानिकारक। जल्लाद के लिये निश्चित अपराधी को फांसी देना उचित कर्म है और दूसरा यही कर्म करे तो प्राण दण्ड का भागी होगा। एक व्यक्ति ने अपराध किया, नियमतः उसे बेतों का दण्ड मिलना है; पर यदि आप बेत मारेंगे तो 

अपराधी होंगे। बेत मारना जिसका काम है, वही मारेगा और दण्ड का निर्णय न्यायालय करेगा। इस प्रकार धर्म में स्वधर्म और पर धर्म का भेद होता है।

कौन-सा कर्म कब किसके लिये धर्म है, यह जानने का साधन शास्त्र है। अतएव धर्म की दूसरी परिभाषा है 'चोदना लक्षणो धर्मः।' शास्त्री प्रेरित कर्म ही धर्म है। प्रत्येक समाज, प्रत्येक जाति, प्रत्येक पदार्थ अपने नियमों पर चलकर ही रह सकता है। जो धर्म को नहीं मानते, वे भी समाज के लिये नियम तो बनाना ही चाहते हैं। ये प्रेरणात्मक नियम न हों तो समाज का धारण ही कैसे होगा। अतः धर्म-धारणा शक्ति तो प्रेरणात्मक शक्ति ही है। प्रेरणा नियम ही करणीय अकरणीय का निर्णय कर सकते हैं।

"कुछ धर्म सार्वभौम धर्म हैं। उन्हीं को नित्य धर्म कहना चाहिये।' इस प्रकार कुछ लोग अहिंसा, सत्यादि को ही धर्म कहना चाहते हैं। इसमें शास्त्र की आवश्यकता उन्हें नहीं प्रतीत होती; परंतु ऐसे भी अवसर आते हैं, जब दो धर्मों में से एक को चुनना अनिवार्य हो जाता है। जैसे एक हिंसक किसी निरपराध दुर्बल का पीछा कर रहा है; दुर्बल कहीं छिप गया है। आप उसे जानते हैं और यदि आप कुछ नहीं बोलते तो भी उसके मारे जाने का भय है। रक्षा करने जैसा बल आपमें है नहीं। ऐसी स्थिति में दया या सत्य में से एक को चुनना होगा।

कुछ धर्म सामान्य और कुछ विशेष होते हैं। जैसे दान सामान्य धर्म है; परंतु यदि कोई रोगी ऐसे पदार्थ आकर माँगे, जो उसे हानि करेंगे तो उस समय विशेष धर्म है उसे वह पदार्थ न देना। इसी प्रकार आततायी को क्षमा करना अहिंसा नहीं, कायरता है। वहाँ सामान्य धर्म अहिंसा में विशेष धर्म आ जाता है-आततायी को देना।

जब भी मनुष्य अपने को या दूसरे को पाप में लगाता है, बहिर्मुख करता है, वह अधर्म करता है। जो पाप में लगा है, पान के पथ पर है, उसे कठोरता से भी रोक देना धर्म ही होता है। जब कोई अन्यायी दुर्बल, बालक, विप्र, गौ या नारी के साथ अत्याचार करता हो, उसे क्षमा के नाम पर चुपचाप देखने वाला अधर्म करेगा। उसे अपना प्राण देकर और आवश्यकता हो तो अन्याय के प्राण लेकर भी दुष्कृत्य को रोकना चाहिये। इसमें अन्यायी का भी आत्मिक कल्याण निहित है। जीवन में ऐसे अवसर आते हैं, जब स्वधर्म के

सामान्य नियमों का पालन अशक्य हो जाता है। क्षुधा प्राणी से हम आशा नहीं कर सकते कि वह प्राप्त कदन्न का त्याग करके सात्विक भोजन की प्रतीक्षा करेगा। ऐसे आपत्तिकाल के लिये विशेष धर्म होते हैं। सामान्य नियमों में एक सीमा तक अपराध स्वीकार करना पड़ता है। इन अपवादों को आपद्धर्म कहते हैं।

 

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